80 के दशक में उन दिनों डाकू मोहर सिंह और मूरत सिंह के किस्से इतने अधिक प्रचलित थे कि डाकुओं की रौबिनहुड वाली छवि फिल्मी हीरो की भांति हमारी अवचेतना में निरंतर कौंधती रहा करती थी.
जेल के आगे बढ़ते ही मिशन स्कूल आता, उस से आगे मुल्लाजी का बगीचा और उस के बाद हमारे नए महल्ले की बस्ती शुरू हो जाती.
पुलिस लाइन से हाईस्कूल तक के 2 किलोमीटर का क्षेत्र एकदम वीरान था. सिवाय बीचोंबीच एक भुतहा मसजिद को छोड़ कर. यहां सुनसान में मसजिद क्यों और किस ने बनाई, किसी को नहीं पता था. मसजिद सड़क से थोड़ा पीछे हट कर तकरीबन 50 कदम पीछे की ओर बनी थी. उस के सामने छोटा सा खुला मैदान था, जिस में एक नलकूप था. भेड़बकरी चराने वाले इसी नलकूप पर कभीकभी पानी पीतेपिलाते दिख जाया करते थे. मसजिद का लकड़ी से बना दरवाजा हमेशा बंद दिखता, जिस की सांकल बाहर से कुंडी पर चढ़ी रहती. मसजिद में किसी को आतेजाते कभी नहीं देखा गया.
अब्दुल बताया करता कि मसजिद के आसपास जिन्न रहते हैं, जो रात में निकलते हैं. भुतहा मसजिद की दीवारों में बड़ीबड़ी दरारें हो गई थीं, जिन में से पीपल और बरगद की शाखाएं निकल आईं थीं.
एक दिन स्कूल से लौटते समय मैं ने अब्दुल से पूछा, “अब्दुल, मसजिद अंदर से कैसी होती है? वहां तुम्हारे कौन से भगवान की पूजा होती है?”
यह सुन कर अब्दुल हंसा था, “मसजिद के अंदर न तो कोई मंदिर होता है और न ही कोई मूर्ति. सिर्फ दीवारें होती हैं और काबा की ओर मुंह कर के नमाज पढ़ने का स्थान.”
फिर पता नहीं उसे क्या सूझा कि वह मेरा हाथ खींचते हुए भुतहा मसजिद में ले गया था. मैं डरा हुआ था कि कोई जिन्न आ कर न दबोच ले हमें.
मसजिद के दरवाजे की कुंडी खोल उस ने किवाड़ों को अंदर की ओर जैसे ही धकेला, तो दरवाजा आसानी से खुल गया.
हम दोनों ने चप्पल बाहर उतारे और अंदर चले गए थे. अंदर संगमरमर का फर्श था, पर था साफसुथरा. दीवारें जरूर मटमैली हो गई थीं.
यह देख अब्दुल खुद भी अचंभित रह गया था, फर्श इतना साफ कैसे? जरूर किसी ने सफाई की होगी. अब्दुल ने एक स्थान पर खड़े हो कर बताया था कि मौलवी साहब यहां से अजान दिया करते हैं.
मैं डरताडरता चारों ओर देखता रहा था कि कहीं कोई जिन्न न प्रकट हो जाए. मसजिद के बाहर निकलतेनिकलते पप्पू बोला था, “हरीश, ईद पर तुम्हें जामा मसजिद ले चलेंगे, जहां शहर के हजारों लोग ईद की नमाज पढ़ने इकट्ठे होते हैं.”
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अब्दुल के अब्बू की शहर के मुख्य बाजार में जूतों की दुकान थी. अकसर शाम के वक्त अब्दुल भी दुकान जाया करता और अब्बू की मदद करता. अब्दुल एक दिन मुझे भी साथ ले गया था. मुख्य बाजार के गांधी चौक में बड़ी सी दुकान के बाहर बोर्ड लगा था, ‘पप्पू शू कार्नर’.
मैं यह देख चकित रह गया था कि अब्बू कैसे किसी नाप के जूते लाने के लिए आवाज लगाते और गफ्फार तुरंत ला कर उन्हें पकड़ा देता. गफ्फार उन का घरेलू नौकर था, जो गांव से आ कर अब उन्हीं के यहां रहने लगा था.
गफ्फार अब तो 18-19 साल का हट्टाकट्टा जवान हो गया था, पर जब 5 साल पहले गांव से शहर आया था, तब मौत से संघर्ष कर रहा था. गांव में किसी आवारा बैल ने उस के गले में सींग घुसा दिया था. किसी तरह जान तो बच गई थी, पर उस का ‘वोकलकार्ड’ खराब हो गया था. 2 बार आपरेशन के बाद भी उस की आवाज नहीं लौटी, और गले से घर्रघर्र की आवाज निकलती.
गफ्फार दुकान खोलने के पहले और दुकान बंद करने के बाद पप्पू के यहां घर के सारे काम करता और दिन के समय दुकान में अब्बू की मदद.
अब्दुल ने मुझे समझाया था कि जूतों के डब्बों को इस तरह जमाया जाता है कि चाहे गए नाप और बनावट के जूते रैक से निकालने में न तो कोई कठिनाई हो और न समय लगे.
उस दिन पप्पू की दुकान से लौटते समय रास्तेभर मैं खयालों में डूबा रहा था कि बड़े हो कर मैं भी इसी तरह की जूतों की दुकान खोलूंगा.
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गफ्फार को सुबहसुबह पप्पू ने अर्जी देने मेरे घर भेजा था. कक्षा अध्यापक के नाम लिखी अर्जी में पप्पू ने पेटदर्द का बहाना बना कर एक दिन का अवकाश मांगा था.
मार्च महीने की उस सुहावनी सुबह अकेले स्कूल जाते समय जब पुलिस लाइन से मैं आगे बढ़ा, तो सड़क के दोनों ओर लगे महुआ के पेड़ों के नीचे स्कूल ना जाने वाले छोटेछोटे बच्चेबच्चियां दौड़दौड़ कर महुआ के टपके फूल बीनते नजर आए थे. वे श्वेत महुआ के फूलों को चुनचुन कर अपनी टोकरी में भर रहे थे. पूरे वातावरण में महुआ की विशेष मदमस्त कर देने वाली गंध फैली हुई थी. महुआ के इन्हीं फूलों को धूप में सुखा कर इन बच्चों की मां पूरे साल रोटी बना कर बच्चों को खिलाया करतीं.
स्कूल से लौटते समय तक चटक धूप हो गई थी और महुआ के पेड़ों की छाया सिकुड़ कर उन के तने तक सिमट गई थी. चारों ओर सन्नाटा था और दूर से भुतहा मसजिद आज और ज्यादा डरावनी दिख रही थी. मैं ने निगाहें दूसरी ओर फेर कदमों की रफ्तार बढ़ा दी थी. पर जब मसजिद के नजदीक पहुंचा, तो मुझे अचानक जिन्न का खयाल आ गया. मैं ने मसजिद की ओर नजर घुमाई तो देखा कि मसजिद का दरवाजा आज खुला हुआ है और दरवाजे के सामने कोई खड़ा है. हमेशा बंद रहने वाला दरवाजा आज क्यों खुला है? और वह खड़ा व्यक्ति कौन हैं? ये प्रश्न मेरे दिमाग में उठ रहे थे.
मैं ने एक बार फिर से खड़े आदमी को गौर से देखने की कोशिश की तो लगा, जैसे वह लंबी सफेद दाढ़ी वाला हाथ से इशारा करते हुए मुझे बुला रहा हो.
मैं ने डर के मारे आंखें बंद की और हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहां से दौड़ लगा दी थी. मेरे दादाजी कहा करते थे कि हनुमान चालीसा के पाठ से भूतप्रेत, जिन्न सब दूर भाग जाते हैं. बचपन में जब मैं उन की उंगली पकड़ तालाब किनारे बने हनुमान मंदिर में संध्या की आरती में जाया करता, तो लौटते समय गांव के सब से पुराने विशाल पीपल वृक्ष के नीचे से निकलते समय वे जोरजोर से हनुमान चालीसा गाने लगते थे. मैं भी उन का अनुसरण करते हुए उन के सुर में सुर मिलाया करता था.