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बाहर फिर से बूंदाबांदी शुरू हो गर्ई थी. मर्ई महीने में इस बार गरमी और वर्षा आंखमिचौली खेल रही थी. सोच ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी. मेरा ध्यान घड़ी की ओर चला गया. ठीक 8 बजे थे. मैं ने फोन उठाया, ‘‘हां दीपक, मैं आ रही हूं. यह कह कर कमजोरी में मैं अपनेआप को चारों ओर से ढकते हुए बिस्तर से उठ गई.’’

सदे हुए कदमों से बाहर बरामदे में आ कर मैं ने देखा कि पुराना थैला चला गया था और नया थैला आ गया था. मैं ने दोनों हाथों से थैला उठाया और अंदर आ कर आवाज लगाई, ‘‘अन्नू बेटा, संजय खाना आ गया है, बाहर आ जाओ.’’

यों कह कर मैं मेज पर खाना जमाने लगी, 6 साल की अन्नू खूब चहक रही थी, फुलके, आलू की सब्जी, शिमला मिर्च, प्याजटमाटर, नमकीन और दही आया था. संजय चुपचाप कुरसी पर बैठ कर अपनी प्लेट लगाने लगे. खाना बहुत स्वादिष्ठ था.

संजय के चेहरे पर कई भाव आ रहे थे, पर कुछ बोल नहीं रहे थे. अन्नू खूब उछल रही थी, ‘‘मम्मी, यह किस होटल का खाना है. बहुत बढ़िया है.’’

मैं क्या जवाब देती, चुपचाप सब सामान समेट कर रसोर्ई में ले गई. बचा हुआ सामान फ्रिज में रखा और बरतन मांजने लगी, क्या करूं? शाम वाली बाई के पति को कोरोना हो गया था. सो, वह भी 3-4 दिन से नहीं आ रही थी. दोपहर में एक बाई जल्दीजल्दी झाड़ूपोंछा और कपड़े धो कर चली जाती थी.

टिफिन डब्बा साफ कर के मैं ने थैले सहित बाहर जाली वाले बरामदे में रख दिया. कल दोपहर में दीपक टिफिन वापस ले जाएगा. संजय अपने कमरे में चल गए और मैं दूसरे कमरे में आ गई. अन्नू अच्छी तरह मास्क लगा कर बैठती थी और मेरे पास भी नहीं आती थी. उसे सब समझा दिया था.

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