पर मुझे ही चुप होना पड़ता था. मेरे तो पीहर के दरवाजे भी बंद थे. कहां जाती. अन्नू कभीकभी कुछ प्रश्न करने लग गई थी, पर हम उसे बहला कर शांत कर देते थे.
इस उलझी हुई जिंदगी में अब कोरोना ने लंबी छलांग लगा दी थी. हर जगह कोरोना का खौफ छा गया था.
दिसंबर में संजय की बुआ के लड़के की शादी थी. मैं ने संजय को शादी में जाने से मना कर दिया था और अपने डरपोक स्वभाव की वजह से वो मान भी गए.
जनवरी में एकाएक मालूम पड़ा कि संजय के पिताजी और गीता को कोरोना हो गया है और वो अस्पताल में भरती हैं.
दोनों बच्चे नौकरानी के भरोसे थे. मैं ने तो उन के प्रति आंखें मूंद लीं. साथ ही, संजय को भी समझा दिया. ‘‘देखो, यह बहुत खराब बीमारी है, बात करने से या पास जाने से ही आदमी कोरोना की चपेट में आ जाता है. वैसे भी चिंता की क्या बात है. घर की नौकरानी संभाल रही है ना और बच्चे भी अब 13-14 साल के हैं और मां भी घर में हैं.’’
वास्तव में अपनी कायर प्रवृत्ति की वजह से घबरा कर संजय ने अपने घर की तरफ रुख भी नहीं किया और संजय की इसी आदत की वजह से अब मेरा मन कुढ़ता था. वो कोई भी निर्णय लेने में हिचकिचाते थे. न वो गीता को छोड़ पाए और न ही मुझे पूरी तरह से अपना पाए.
अब तो मुझे बहुत अफसोस होता था कि कैसे अपने निर्णय से मैं खुद ही मंझधार में फंस गई. अन्नू की स्कूल में भी पिता की जगह मैं ने संजय नाम बड़ी मुश्किल से लिखवाया था.
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