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इन सब बातों से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा. जब घर में सब को इस बात का पता चला, तो सब ने समझाने की कोशिश की, ‘‘क्यों तू अपनी जिंदगी खराब कर रही है? ऐसी औरततें न घर की रहती हैं और न घाट की.’’

पर, जब मुझ पर असर नहीं हुआ तो भाई ने मुझे थप्पड़ मार दिया और भाभी ताने कसने लगी और मुझे सब ने घर में कैद करने की कोशिश की.

धीरेधीरे संजय के घर में, आसपड़ोस और मेरी सहेलियों में हवा की तरह यह बात फैल गई. दोनों तरफ से समझाना शुरू हो गया, पर हमारी तो दीवानगी बढ़ रही थी.

डाक्टर की पत्नी गीता एक दिन रविवार को अचानक मेरे पास आ गर्ई और क्रोध से भरी फुफकार उठी, ‘‘तूझे क्या मेरा ही पति आंख लड़ाने को मिला था? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं और हमारी सुखी गृहस्थी है. उस में आग का गोला क्यों फेंक रही हो?’’

मैं पहले तो एकदम अवाक रह गई, पर फिर मैं ने शांत स्वर में कहा, ‘‘देखिए, जो भी आप को कहना हो, अपने पति से कहो, मेरातुम्हारा कोर्ई रिश्ता नहीं है और न ही तुम मुझ पर कोई दबाव डाल सकती हो.’’

मैं निष्ठुर बनी बैठी रही, फिर एकाएक उस की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘देखो, मैं तुम से विनती कररती हूं. मेरा घर मत उजाड़ो, तुम तो कुंआरी हो, तुम शादी कर सकती हो, पर इस गलत रिश्ते से तुम समाज में मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहोगी.’’

पर, हम दोनों की आंखों का पानी तो मर चुका था. अब हम रेस्टोरेंट, पार्क, सिनेमा सब जगह मिलने लगे.
4-5 दिन बाद संजय की मां हमारे घर आ गई. मैं उन्हें देख कर पिछले दरवाजे से बाहर खिसक गई. उन्होंने भी मेरे मांबाप को बहुत समझाने की कोशिश की. कहने लगी, ‘‘दोनों घरों की इज्जत धूल में मिल जाएगी. और तुम्हारी लड़की की शादी भी कहीं नहीं होगी.’’

मेरे वापस लौटने पर मेरे पिताजी ने गुस्से में मेरे 2-4 थप्पड़ जड़ दिए और साथ ही सख्त हिदायत दे दी कि पढ़ाई खत्म हो गई है. अब घर में रहो. बड़ी बहन ने भी समझाया, पर न जाने मुझ पर कैसा जुनून सवार था कि जितना सब कहते, उतनी ही मैं उद्दंड होती जा रही थी.

रोज की किचकिच से परेशान हो कर मैं ने घर से 50 किलोमीटर दूर नौकरी कर ली.

इस अपरिचित जगह में संजय सप्ताह में 2 दिन मेरे पास रह जाते थे, पर हमें संतुष्टि नहीं थी. कुछ दिन बाद संजय ने सुझाव दिया, ‘‘हम ऐसा करते हैं शहर से कुछ दूरी पर ही किराए पर मकान ले लेते हैं. मैं वहां से रोज अस्पताल चला जाऊंगा. यह सुन कर मेरी तो बांछे खिल गईं.

बस संजय ने चुपचाप एक मकान 10 किलोमीटर की दूरी पर ले लिया और थोड़ाबहुत सामान का भी इंतजाम कर लिया. मैं ने भी पास ही के स्कूल में नौकरी कर ली, पर 6 महीने बाद ही मैं गर्भवती हो गर्ई और पड़ोसियों की गढ़ती निगाहों से बचने के लिए मैं ने नौकरी छोड़ दी. हमारा कहीं भी आनाजाना नहीं था.
अब कहीं भी जाने से हम कतराने लगे थे, अस्पताल तो चल रहा था, पर सामाजिक दायरा, यारदोस्त सब न के बराबर हो गए थे. मेरे घर वालों ने तो मुझ से बिलकुल ही रिश्ता तोड़ दिया था. इसलिए अन्नू के जन्मदिन की खुशी में भी हमारे साथ कोई भी शामिल नहीं था.

अन्नू 4 साल की हो गर्ई थी. तब मन लगाने के लिए मैं ने घर पर ही बच्चों की इंगलिश की कोचिंग लेनी शुरू कर दी.

पर, वो भी धीरेधीरे बंद हो गई. न जाने क्यों हमें ऐसा लगता था कि जैसे राह चलता हर आदमी हमें घूर रहा है और हमारा उपहास उड़ा रहा है. समय के साथ हमारा उन्माद भी कम हो रहा था.

सब से बड़ी बात यह हुई कि संजय ने न तो गीता को तलाक दिया और न ही मुझ से शादी की. संजय के पिताजी ने साफ कह दिया था, ‘‘तू रह उस औरत के साथ, मेरी भुजाओं में अभी भी इतनी ताकत है कि मैं बहू और बच्चों को आराम से रख सकता हूं. पर तुझे तलाक नहीं लेने दूंगा. याद रखना तू बहुत पछताएगा.”

संजय पैर पटकता हुआ चला गया. गीता संजय को जाते देख रोने लगी, तो उस के ससुर बोले, ‘‘सब ठीक हो जाएगा बहू. तू फिक्र मत कर, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. यहां तुझे कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा.”

बस दूर रह कर संजय अपनी अधपकी जिंदगी जी रहे थे. वैसे भी धीरेधीरे हमारी जिंदगी रूखीसूखी होती जा रही थी. थोड़ाबहुत प्यार था तो वो सिर्फ अन्नू की वजह से, संजय अन्नू को बहुत प्यार करते थे.

सब से बड़ी बात जो मुझे खटकती थी वो यह कि संजय ने अपने घर जाना बंद नहीं किया था. सप्ताह में वो 3-4 चक्कर लगा ही लेते थे और उन की छोटीछोटी ख्वाहिश भी पूरी कर देते थे.

यह बात मुझे पता चल गर्ई थी, चिढ़ भी बहुत छूटती थी. हम दोनों के बीच इस बात को ले कर कई बार झगड़ा भी हुआ था और मैं अपने लिए असुरक्षा भी महसूस होती थी.

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