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लेखिका-डा. क्षमा चतुर्वेदी

सब के जाने के बाद फिर रात को वीणा ने परी से बात की, ‘‘बेटा, घनश्यामजी और सुनीता भाभी अपने बेटे के साथ मिले होंगे तुम से, क्या बात हुई?’’ ‘‘हां, मां आए तो थे, अचानक औफिस में ही आ गए, पर आप क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘अब, अब इस वीकएंड में तू घर आ जा, फिर बात करेंगे...’वैसे तो दिल्ली से चंडीगढ़ अकसर परी शनिवार, इतवार को आ ही जाती थी. ‘‘कुछ खास बात है क्या मां...?’’परी पूछ रही थी.

‘‘हां बेटा, खास ही है, जरूरी बात करनी है.’’ परी शायद तब भी कुछ समझ नहीं पाई थी, और वीणा सोच रही थी कि बेटी को अब एक नए सिरे से समझाना पड़ेगा, ताकि शादी को ले कर उस के मन में उत्साह जगे, वह तो साध्वी बनी बैठी है.

वैसे, अगले शनिवार को परी आ भी गई थी. फिर बात को घुमाफिरा कर वीणा ने घनश्यामजी का मन्तव्य बता ही दिया. ‘‘मां...’’ परी चौंक गई थी.‘‘तुम तो जानती हो न कि मेरी अब कोई इच्छा नहीं रही इस प्रकार के बंधन में बंधने की. मैं आप को पहले ही बता चुकी हूं कि इतनी बार टूटने के बाद मेरी उस प्रकार की इच्छाएं ही खत्म हो गई हैं. अब मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया है और मैं खुश हूं, और अब कोई बदलाव भी नहीं चाहती, आप लोगों ने हां कैसे कर दी?’’

परी तो एक प्रकार से बिखर ही पड़ी थी और इसी बात की आशंका थी वीणा को. ‘‘देख बेटा, हम तो कहीं गए नहीं, न ही कोई प्रयास किया, वह तो घर बैठे ही रिश्ता आया है तो लगता है कि इस में ऊपर वाले की ही कोई मरजी है, तभी तो घरपरिवार सब जानापहचाना...’’

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