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लेखिका-डा. क्षमा चतुर्वेदी

‘‘वीणा... वीणा, अरे कहां हो, सुनती हो?’’ बाहर दरवाजे से आ रही विशाल की आवाज से वीणा चौंक गई थी. अभी बाहर पार्क से आ कर लौटे होंगे, पर ऐसी क्या आफत आ गई आती ही.

नाश्ता बनाते हुए वीणा के हाथ और तेजी से चलने लगे थे. आज वैसे ही सुबह से हर काम में देरी हो रही है, शायद जोरों से भूख लग आई होगी, सोचते हुए वीणा ने वहीं से जवाब दिया,

‘‘बस 5 मिनट ठहरो, अभी सब टेबल पर लगाती हूं.’’‘‘अरे, मैं खाने की बात नहीं कर रहा हूं, तुम तो गैस बंद कर के यहां आओ, बरामदे में, बड़ी खुशखबरी देनी है, ऐसी खुशी, जिस की तुम ने कल्पना भी नहीं की होगी.’’‘‘अरे, ऐसी कौन सी बात हो गई?’’ वीणा ने नाश्ते के लिए तैयार आलू एक तरफ रखे, दूध का भगौना नीचे उतारा, फिर हाथ पोंछते हुए बाहर आई.

‘‘हां, अब यहां बैठो आराम से और पूरी बात सुनो ध्यान से,’’ कहते हुए विशाल ने वीणा के लिए भी बरामदे में ही कुरसी खींच दी थी.‘‘हां कहो,’’ वीणा भी उत्सुक थी.

‘‘अरे, आज अभी घूमने में घनश्याम मिल गए, तो मैं ने ऐसे ही पूछ लिया कि कहां थे हफ्तेभर से, घूमने तो आए नहीं, तो घनश्याम मुझे हाथ पकड़ कर पास की बेंच पर ले गए..."

‘‘यार, तुझे ही ढूंढ़ रहा था, बहुत जरूरी बात है.’’‘‘हां... हां कहो.’’फिर उस ने कहा कि दिल्ली गया था. बेटा प्रमेश लंदन से आया हुआ था तो सोचा कि दिल्ली में ही मिल लें, क्योंकि बाद में इसे बेंगलुरु के लिए निकलना था. फिर दिल्ली में हम बेटी परी से मिल ने उस के औफिस गए थे.

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