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क्या बात है रश्मि, बौस का लंच बौक्स बड़े प्यार से भरा जा रहा है,” नरेश ने शैतानी से मुसकरा कर आंखें नचाते हुए कहा.

“हां, हां, क्यों नहीं,” रश्मि मुसकरा कर बोली, “आखिर बौस किस का है.”

रश्मि सब के लंच बौक्स पैक कर रही थी - पति का, बेटे का, बेटी का, और अपना खुद का, तभी पति की ओर से यह टिप्पणी मिली.

इस बीच नरेश ने रश्मि को छेड़ने के लिए अपना मनपसंद गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया, ‘‘चाहने वाले तुम्हें और भी हैं.’’

इसे भी नजरअंदाज कर रश्मि दफ्तर जाने के लिए कपड़े बदलने के लिए चली गई.

हर कामकाजी महिला की तरह रश्मि की सुबह का एकएक मिनट गिना हुआ होता था, जिस में किसी तरह के नए काम के लिए स्थान नहीं था, चाहे वह मजाक पर हंसना या उस का जवाब देना ही क्यों न हो.

हालांकि खाना बनाने का काम नौकरानी करती थी, लेकिन लंच पैक करने का काम वह खुद ही करती थी.

दफ्तर, परिवार, घर, इन सब के बीच समय कहां उड़ जाता था, पता ही नहीं चलता था. फिर भी वह समय निकाल कर घर के छोटेछोटे काम खुद ही करने की कोशिश करती थी, जिस से सब लोगों के प्रति उस के प्रेम का प्रदर्शन होता था और उसे खुशी का एहसास होता था.

इस समय उसे अपनी दादी और नानी (मुहावरे के तौर पर नहीं) दोनों याद आती थीं. उस की दादी बहुत ही ऐशोआराम में पली थीं. उसे अपनी उंगली तक हिलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी.

उधर नानी के पास सबकुछ था, लेकिन वे खुद काम करने में विश्वास रखती थीं और हर समय दौड़तीभागती ही रहती थीं. रश्मि हमेशा चाहती थी कि दादी की तरह जिंदगी गुजरे, लेकिन नियति ने उसे नानी की जिंदगी गुजारने पर ला कर छोड़ दिया था.

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