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जयंति की एक बेटी थी जो कालेज के फाइनल ईयर में थी. रक्षा ने 1 साल पहले बेटे का विवाह किया था और शोभा का बेटा इंजीनियर व प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत एक नखरेबाज युवा था जो विवाह के नाम पर नाकभौं सिकोड़ता और ऐसा दिखाता जैसे विवाह करना व बच्चे पैदा करना सब से निकृष्ट कार्य एवं प्राचीन विचाराधारा है और उस के जीवन के सब से आखिरी पायदान पर है. एक तरह से जब सब निबट जाएगा तो यह कार्य भी कर लेगा.

जयंति को अपनी युवा बेटी से ढेरों शिकायतें थीं, ‘‘घर के कामकाज को तो हाथ भी नहीं लगाती यह लड़की. कुछ बोलो तो काट खाने को दौड़ती है. कल को शादीब्याह होगा तो क्या सास बना कर खिलाएगी,"जयंति पति के सामने बड़बड़ा रही होती. अपनी किताबों में नजरें गड़ाए बेटी मां के ताने सुन कर बिफर जाती, ‘‘फिक्र मत करो. मुझे खाना बना कर कोर्ई भी खिलाए पर आप को तंग करने नहीं आऊंगी.’’

बेटी तक आवाज पहुंच रही है. बेवक्त झगड़े की आशंका से जयंति हड़बड़ा कर चुप हो जाती. पर बेटी का पारा दिल ही दिल में आसमां छू जाता. वह जब टाइट जींस और टाइट टीशर्ट डाल कर कालेज या कोचिंग के लिए निकलती तो जयंति का दिल करता कि जींस के ऊपर भी उस के गले में दुपट्टा लपेट दे. पर मनमसोस कर रह जाती. घर में जब बेटी शौर्ट्स पहन कर पापा के सामने मजे से सोफे पर अधलेटी हो टीवी के चैनल बदलने लगती तो जयंति का दिमाग भन्ना जाता,‘‘आग लगा दे इस लड़की के कपड़ों की आलमारी को.’’ और उस के दोस्त लङके जब घर आते तो वह एकएक का चेहरा बड़े ध्यान से पढ़ती. न जाने इस में से कल कौन उस का दामाद बनने का दावा ठोंक बैठे.

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