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‘‘यार, तुम बहुत खुशनसीब हो कि तुम्हें बेटी है…’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द दिल से महसूस करती हैं…’’

‘‘नहीं यार, मत पूछो, आजकल की बेटियों के हाल… वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता का, विशेषकर मां का दुखदर्द सिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं…तुम्हारी बेटी नहीं है न…इसलिए कह रही हो.’’

एक बेटी की मां जयंति शोभा की बात काटती हुई बोली, ‘‘इस रक्षा का अच्छा है…बहू ले आई है, बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू तो दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है. कहना सुन लेती है.’’

‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना, तौबातौबा… मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी पर हावभाव व आंखों से बहुत कुछ जता देंगी,’’ रक्षा जयंति का प्रतिवाद करती हुई बोली, ‘‘जिन बेटियोंं का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं. कोर्ई ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं. आजकल की बहुएं…बस अंदर ही अंदर दिलमसोस कर रह जाओ…बेटे पर ज्यादा हक भी नहीं जता सकते, नहीं तो बहुत उसे मां का लाड़ला कहने से नहीं चूकेगी…’’ रक्षा ने दिल की भड़ास निकाली.

शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबी सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं की बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी…न मेरी बेटी न बहू…पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा. कब मैं लड़की ढूंढ़ने जाऊंगी…कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी…अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की…’’

‘‘जब तक नहीं आती तब तक मस्ती मार…’’ रक्षा और जयंती हंसती हुई बोलीं, ‘‘गोल्डन टाइम चल रहा है तेरा…सुना नहीं, पुरानी कहावत है…पहन ले जब तक बेटी नहीं हुई, खा ले जब तक बहू नहीं आई. इसलिए हमारा खानापहनना तो छूट गया. पर तेरा अभी समय है बेटा…डांस पर चांस मार ले. मस्ती कर, पति के साथ घूमने जा, पिक्चरें देख, कैंडिल लाइट डिनर कर…वगैरह. कम से कम बाद में नातीपोते खिलाने पड़ेंगे और बच्चों को कहना पड़ेगा कि जाओ, घूम आओ, हम तो बहुत घूमे अपने जमाने में, तो दिल तो न दुखेगा, कह कर तीनों सहेलियां कम पड़ोसिन खिलखिला कर हंस पड़ीं और शोभा के घर से उन की सभा बरखास्त हो गई.

रक्षा, जयंति व शोभा तीनोंं पड़ोसिनें व अभिन्न सहेलियां भी थीं. उम्र थोड़ा बहुत ऊपरनीचे होने पर भी तीनों का आपसी तारतम्य बहुत अच्छा था. हर सुखदुख में एकदूसरे के काम आतीं. होली पर गुजिया बनाने से ले कर दीवाली की खरीदारी तीनों साथ करतीं. तीनों एकदूसरे की राजदार भी थीं और लगभग 15 साल पहले जब उन के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे, थोड़ा आगेपीछे तीनों के घर इस कालोनी में बने थे.

तीनों ही अच्छी शिक्षिति महिलाएं थीं और इस समय अपने फिफ्टीज के दौर से गुजर रही थीं. जिन के पास जो था उस से असंतुष्ट और जो नहीं था, उस के लिए मनभावन कल्पनाओं का पिटारा उन के दिमाग में अकसर खुला रहता. लेकिन जो है उस से संतुष्ट रहने की तीनों ही नहीं सोचतीं, न ही सोच पातीं कि जो उन्हें कुदरत ने दिया है, उसे किस तरह से खूबसूरत बनाया जाए.

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