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बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे, जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों को हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुलझी. फिर बहू को भी नौकरी मिल गई. वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.

रक्षा सोचती कि मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी. पहले मां बाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. ‘आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ियों के बीच झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.

उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पङने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहू व बेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.

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