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लेखक-राकेश भ्रमर

आजकल अनिल उसे बचत की हिदायत देने लगा था. लखनऊ में एक मकान और एक प्लौट खरीदने की बात चल रही थी. उस ने फौर्म भर दिया, बुकिंग अमाउंट दे दिया था. अलौट होते ही पूरा पैसा भरना पड़ेगा. मकान और प्लौट रीना के ही नाम?थे. अनिल की

2 नंबर की कमाई भी उस के बूटिक के नाम पर सफेद हो रही थी. फिर भी रुपएपैसे के लेनदेन में पति की सहमति आवश्यक थी. हजारदोहजार की बात हो, तो कोई आंख मूंद कर दे भी दे.

रात को सोते समय उस ने अनिल से बात की. सुन कर अनिल गंभीर हो गया. फिर बोला, ‘‘रीना, एक बात हमेशा ध्यान रखना, पैसा रिश्ते बनाता?है, तो बिगाड़ता भी है, जब तक हम देते हैं, हम बहुत प्रिय होते?हैं, परंतु जिस दिन अपना दिया हुआ मांग बैठते?हैं, उसी दिन उन के सब से बड़े शत्रु हो जाते?हैं, रिश्तों की सारी मधुरता विष बन जाती?है.’’

‘‘वे मेरे मांबाप हैं, उन की जरूरत पर काम नहीं आएंगे, तो किस के काम आएंगे,’’ रीना ने मान करते हुए कहा.

‘‘ठीक?है, समाज में रहते हुए हम सभी एकदूसरे के काम आते?हैं, परंतु पैसे का लेनदेन रिश्तों की निकटता और मधुरता को समाप्त कर देता है. हमारे पास पैसा है, परंतु इस का अर्थ यह नहीं कि लोग हमें गरीब की भैंस समझ कर दुहने लगे. तुम पहले भी इन सब को बहुतकुछ दे चुकी हो. मैं मना नहीं करता, दे दो. तुम्हारे भाई की नौकरी का सवाल है. परंतु जिस दिन भी तुम उन से एक पैसा मांग बैठोगी, उसी दिन बेटी होते हुए भी तुम उन की सब से बड़ी दुश्मन हो जाओगी.’’

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