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लेखक-रमाकांत मिश्र एवं रेखा मिश्र

‘‘क्या है यह समाज? मुझे देखिए, सुरुचि के अलावा मैं ने शायद ही किसी औरत को ढंग से देखा हो. लेकिन ज्यादातर लोग मुझे चरित्रहीन समझते हैं. मुझे चरित्रहीन का फतवा सुनाने वालों में कई ऐसे हैं, जो अपनी बेटी या बहन का रिश्ता ले कर आए थे. अगर आज मैं उन के यहां शादी को हां कर दूं तो मैं ठीक हूं, उन्हें शादी से कोई एतराज नहीं. वरना मैं चरित्रहीन हूं. और...बुरा मत मानिएगा, आप को भी लोगों ने बख्शा नहीं होगा,’’ मैं उत्तेजित हो

गया था.

‘‘आप ठीक कहते हैं. मुझ पर... तो पापाजी के साथ लांछन लगाया गया है,’’ ममता कंपकंपाते स्वर में बोली थी.

‘‘फिर भी आप समाज का रोना रो

रही हैं?’’

‘‘तभी तो और सोचना पड़ता है.’’

‘‘नहीं, ऐसा सोचना गलत है. हमें जीने के लिए एक ही जीवन मिला है. अगर हम इसे इस समाज के भय से बरबाद कर दें तो हम से बड़ा मूर्ख कोई नहीं. फिर इस समाज को लालाजी से अधिक तो हम समझ नहीं सकते. अगर वे गलत नहीं समझते तो समाज जाए भाड़ में.’’

ममता चुप रही. मुझे अपनी उत्तेजना पर काबू पाने में समय लगा. न जाने कब से यह सब घुमड़ रहा था. आज गुबार निकला तो कुछ सुकून मिला.

‘‘बच्चों की बात जरूर सोचने वाली है,’’ मैं फिर बोला, ‘‘बच्चों पर पड़ने वाले असर के बारे में हमें जरूर सोचना चाहिए लेकिन अगर हमारा आचरण गरिमामय हो, उन के प्रति स्नेहमय हो, उदार हो तो बच्चों पर कोई गलत प्रभाव नहीं पड़ेगा. अगर हमारा परिपक्व व्यवहार हो तो उलटा बच्चों के लिए फायदेमंद ही होगा. फिर कुछ सालों बाद वे निश्चय ही अपना संसार बसाएंगे. तब हम लोग और अधिक अकेले पड़ जाएंगे. मैं तो डरता हूं, कहीं मैं खुद ही अपने बेटे के सुखों से ईर्ष्या न करने लगूं. मैं ने ऐसा होते

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