लेखक-रमाकांत मिश्र एवं रेखा मिश्र
ममता का रेल टिकट स्कूल स्टाफ को सौंप कर हम लोग सुबह पौ फटने से पहले ही निकल पड़े. इतनी सुबह चलने का कारण यह भी था कि हम आंदोलन वाले इलाके से सुबह जल्दी निकल जाएं. सुबह 6 बजे से पहले हम हरिद्वार में थे. एक रिसोर्ट में रुक कर फ्रैश हुए, फिर चल पड़े.
रेलवे स्टेशन से पहले एक बढि़या सा रैस्तरां देख कर मैं ने कार रोकी. नाश्ते के दौरान भी हम चुप ही रहे. 15-20 मिनट में नाश्ते से निबट कर हम फिर चल पड़े.
‘‘अब आप लखनऊ में रहते हैं?’’ ममता ने ही चुप्पी तोड़ते हुए पूछा.
‘‘हां, 9 साल हो गए. अब लखनऊ कुछ भाने लगा है. सोचता हूं, यहीं बस जाऊं.’’
‘‘कानपुर में तो शायद आप का अपना मकान था?’’
‘‘नहीं, किराए का था. यहां महानगर में जरूर एक डूप्लैक्स ले लिया है.’’
‘‘चलिए, अच्छा है. अपना घर तो होना ही चाहिए.’’
‘‘घर तो नहीं है, मकान जरूर है’’, मैं ने निराशाभरे स्वर में कहा.
‘‘आप ने अभी तक...?’’ ममता ने बात अधूरी छोड़ दी.
मैं फीकी हंसी हंसा, ‘‘और आप ने...?’’ कुछ देर बाद मैं ने पूछा.
उस ने भी एक फीकी सी हंसी हंस दी.
फिर हम काफी समय तक चुप रहे. कार में भर उठी उदासी को दूर करने के मकसद से मैं ने पूछ लिया, ‘‘आप कुछ कर रही हैं क्या?’’
‘‘हां, टाइम काटने के लिए एक बुटीक खोला है.’’
‘‘सचमुच? कहां पर?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.
‘‘हजरतगंज में.’’
‘‘अप्सरा तो नहीं?’’ मैं ने ममता की ओर देखा.
‘‘जी’’, उस ने सिर हिला कर कहा.
अप्सरा 2 वर्ष पहले ही शुरू हुआ था और आज की तारीख में लखनऊ में फैशनपसंदों की पहली पसंद है.