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कार्यालय से लौट कर जैसे ही प्रणव ने बताया कि उसे मीटिंग के सिलसिले में 5-6 दिन के लिए दिल्ली जाना है, प्रिया खुशी से उछल पड़ी, ‘‘इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी. वीनू और पायल के स्कूल में 3 दिन की छुट्टियां हैं, 2 दिन की छुट्टी उन्हें और दिला देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ प्रणव ने जूते के फीते खोलते हुए कहा.

प्रिया के उत्साह का उफान दोगुना हो गया, ‘‘कितने दिन हो गए दिल्ली गए हुए. अब 5-6 दिन बहुत मजे से कटेंगे. बच्चों को भी इस बार पूरी दिल्ली घुमा दूंगी.’’

प्रिया के स्वर में बच्चों की सी शोखी देख प्रणव के अधरों पर मुसकराहट उभर आई, ‘‘अच्छा बाबा, खूब घूमनाघुमाना, पर अब चाय तो पिला दो.’’

‘‘हां, चाय तो मैं ला रही हूं पर तुम कल सुबह ही दफ्तर से फोन कर के भैया को अपना प्रोग्राम बता देना,’’ प्रिया ने उठते हुए कहा तो प्रणव फिर धीमे से मुसकरा दिया, ‘‘पर मैं तो सोच रहा था कि इस बार उन्हें अचानक पहुंच कर आश्चर्यचकित कर देंगे.’’

‘‘नहीं, तुम पहले फोन जरूर कर देना,’’ कमरे से निकलती हुई प्रिया एक पल को ठहर गई.

‘‘पर क्यों?’’

‘‘अरे, उन्हें कुछ तैयारी करनी होगी. आखिर तुम दामाद हो उस घर के,’’ कहते हुए प्रिया रसोईघर की ओर मुड़ गई.

पर प्रणव का चेहरा गंभीर हो उठा. प्रिया की यही बात तो उसे अच्छी नहीं लगती थी. ससुराल में उस की इतनी आवभगत होती कि संकोच महसूस कर के वह स्वयं वहां बहुत कम जाता था. प्रिया के भैयाभाभी से जबजब उस ने औपचारिकता के इन बंधनों को काटने का अनुरोध किया तो प्रिया ने बीच में आ कर सबकुछ वहीं का वहीं स्थिर कर दिया. वह बोली, ‘हम कौन सा रोजरोज यहां आते हैं.’

इस संबंध में प्रणव ने खुद कितनी बार पत्नी को समझाने का प्रयत्न किया पर सब व्यर्थ रहा. उस के मस्तिष्क पर तो संस्कारों की स्याही से लिखी इबारत इतनी पक्की थी कि उस पर कोई रंग चढ़ने को तैयार न था.

प्रिया चाय ले आई. चाय पी कर उठते हुए प्रणव धीमे से बोला, ‘‘शुक्रवार को रात की गाड़ी से चलना है. मैं दफ्तर से किसी को भेज कर आरक्षण करवा लूंगा. तुम सब तैयारी कर लेना.’’

दिल्ली जाने की बात सुन कर बच्चों की भी खुशी का ठिकाना न था. पिछली बार की स्मृतियां अभी भी ताजा थीं. सो वे आगे का प्रोग्राम बना रहे थे.

‘‘याद है वीनू, पिछली बार मामाजी के यहां कितना मजा आया था. रोज खूब चाट, पकौड़े, आइसक्रीम और रसगुल्ले खाते थे, वीसीआर पर रोज फिल्म…’’

पायल ने अपनी आंखें नचाते हुए कहा तो वीनू भी बोल पड़ा, ‘‘अरे, इस बार तो हम खूब दिल्ली घूमेंगे और मां कह रही थीं कि हम पूरे सालभर बाद वहां जा रहे हैं, मामाजी हम को नएनए कपड़े भी देंगे.’’

सुन कर उधर से गुजरते प्रणव का मन खट्टा हो गया. दिल तो किया कि प्रिया का जाना रद्द कर दे. वह सोचने लगा, ‘आखिर क्या कमी है उस के घर में जो वह अभी तक मायके वालों से इतनी अपेक्षाएं रखती है. फिर वह यह क्यों नहीं सोचती कि उस के भाई का अपना परिवार है, कब तक अपने मांबाप के दायित्वों का बोझ वह उठाता रहेगा. शराफत की भी एक सीमा होती है. अगर भाई अपने कर्तव्यों को निबाह रहा है तो बहन का भी तो कुछ फर्ज बनता है…

‘पर प्रिया तो इस मामले में बिलकुल कोरी है. अधिकारों की सीमाएं लांघना तो उसे खूब आता है पर कर्तव्यों की लक्ष्मणरेखा के करीब भी जाना उसे पसंद नहीं. अब बच्चों के भोले मस्तिष्क में भी इस प्रकार की बातें डाल कर वह अच्छा नहीं कर रही.’

उसी पल प्रणव ने निश्चय कर लिया कि इस बार वापस आने पर वह प्रिया से इस विषय में कड़ाई से पेश आएगा. अब जाते समय वह इस बात को छेड़़ कर पत्नी और फिर स्वयं का मूड खराब नहीं करना चाहता था.

स्टेशन पर ही भैयाभाभी आए हुए थे. पर इस बार प्रणव ने महसूस किया कि हर बार की तरह उन के चेहरों पर वह ताजगी नहीं थी जिसे देखने का वह अभ्यस्त था. घर जाते समय उस ने दबे शब्दों में उन से पूछने का प्रयत्न भी किया, जिसे भैया हंस कर टाल गए. पर प्रिया इन सब से बेखबर अपनी ही रौ में भाभी को कानपुर के किस्से सुनाती जा रही थी.

घर पहुंचते ही सब ने छक कर नाश्ता किया. एक तो जबरदस्त भूख, ऊपर से भाभी ने इतना स्वादिष्ठ नाश्ता बनाया था कि प्लेटों पर प्लेटें साफ होती चली गईं.

नाश्ते के बाद भाभी तो रसोईघर में दोपहर के भोजन की व्यवस्था में लग गईं और प्रिया भैया से गपशप मारने में मशगूल हो गई.

‘‘भैया, आप दफ्तर जा कर गाड़ी वापस भेज दीजिएगा क्योंकि इस बार मैं बच्चों को दिल्ली घुमाने का वादा कर चुकी हूं.’’

बातों के दौरान प्रिया ने कहा तो पास ही खड़ा टाई की गांठ लगाता प्रणव झल्ला उठा, ‘‘तुम भी कमाल करती हो प्रिया, भैया का दफ्तर यहां रखा है, 30-35 किलोमीटर दूर से कार वापस आए और फिर शाम को भैया को भी लौटना है. इस से तो अच्छा है तुम लोग टैक्सी से जाओ. बच्चे आराम से घूम लेंगे.’’

‘‘देखो जी, तुम मेरे और मेरे भैया के बीच में मत बोलो. यह हमारे आपस की बात है,’’ प्रिया ने चिढ़ कर कहा तो क्रोध में भरा प्रणव बिना कुछ बोले बाहर निकल गया. वह जानता था कि मायके में प्रिया से कुछ कहना और भी व्यर्थ सिद्ध होगा.

 

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