लेखक- डा. भारत खुशालानी
रात के तकरीबन पौने 9 बजे होंगे जब घर के दरवाजे पर घंटी बजी. चिराक्षनी ने आतुरता से दरवाज़ा खोला, प्रेषक ने जल्दी से घर में प्रवेश किया.
अपनी टाई उतारते हुए उस ने कहा, “पता नहीं कैसे पहुंचा हूं यहां तक. रोड पर एक भी गाडी अपनी जगह से हिल भी नहीं रही थी.”
चिराक्षनी ने प्रेषक का बैग रख दिया.
प्रेषक ने बताया, “3 बार लिफ्ट ली है, और 2 बार गाड़ियां बदली हैं, उस के बाद स्टैशन से यहाँ पैदल. लगभग 6 घंटे लग गए घर तक पहुंचने में.”
चिराक्षनी ने चिंतित हो कर पूछा, “बहुत थक गए होंगे न तुम?”
“थकना कम, गुस्सा ज्यादा आ रहा है," प्रेषक ने बताया.
“टीवी पर बता रहे थे कि ट्रैफिक बहुत खराब है.”
“खराब? 2 गाड़ियों के बीच आदमी के निकलने की जगह तक नहीं थी और ऊपर से ट्रक, टैंपो, औटो वालों से धूल और धुंआ. पता नहीं कितने किलोमीटर लंबी लाइन लगी हुई थी.”
“अब शायद कल से लोग जाना ही छोड़ दें,” चिराक्षनी ने कहा.
“इतने सालों में पहली बार ऐसा देखा है. इस के पहले तो ऐसा कभी नहीं देखा, प्रेषक ने बताया.
“पता नहीं कितने दिन लगेंगे इन को सब वापस व्यवस्थित करने के लिए,” चिराक्षनी कुछ चिंतित हो गई थी.
“रास्ते में तो कोई कुछ करते दिखा नहीं," प्रेषक ने बताया.
“चलो, कम से कम घर तो पहुँच गए," चिराक्षनी थोङा निश्चिंत दिखी.
“जब तक सब ठीक नहीं हो जाता, तब तक बाहर काम पर जाना बेकार है. आज जैसी यात्रा तो फिर नहीं करनी है मुझे," प्रेषक ने झल्लाते हुए कहा.
“रेल वाले स्टाफ बता रहे थे कि इलैक्ट्रिक गाड़ियां भी नहीं चल पा रही हैं.”
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