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वक्त गुजरता गया. लोगों से कभी भरी रहने वाली कश्मीर घाटी लगभग अब सूनी सी हो गई थी. कोई कभीकभार ही जम्मू से ट्रक ले कर अपना सामान लेने आता था. अमीर मुसलिम घरानों ने भी अपनी बहूबेटियां महफूज जगहों पर भेज दी थीं. सिर्फ गरीब और मध्यवर्गीय परिवार ही इस आतंकवाद की आग को झेल रहे थे.

एक रात कई मुजाहिद रहमान के घर में ठहरे थे. सलमा ने खाना परोसा. उन में से एक को तन की भूख सताने लगी. उसे मालूम था कि परवेज की बेवा यहीं रहती है. बंदूक की नोक पर उस ने शमीम को हासिल कर लिया. सब के सामने उस ने शमीम के तन को तारतार कर दिया. रहमान कुछ न कर सका. सलमा छाती पीटपीट कर रोती रही. लेकिन वह मुजाहिद टस से मस न हुआ, तन की भूख मिटा कर ही उठा. शमीम अधमरी कितनी ही देर तक यों ही पड़ी रही.

रहमान खुदकुशी करना चाहता था पर बेटी आलिया का सहमा, डरा चेहरा देख कर रुक गया. शमीम की बिखरी हालत देख कर उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कई दिनों तक वह दुकान भी न जा सका. सब पूछते तो वह क्या कहता कि मेरी आंखों के आगे बहू की अस्मत को एक मुजाहिद ने तारतार कर दिया और मैं कुछ न कर सका. लेकिन गरीब कितने दिन दुकान बंद रखता, मजबूर हो कर उसे दुकान पर जाना ही पड़ा. उसे अब अपनी जिंदगी जिंदा लाश सी लगती. हर वक्त उसे घर की फिक्र रहती.

रहमान कई बार सोचता कि वह भी परिवार को ले कर घाटी से निकल जाए लेकिन गरीबी उस के आड़े आ जाती. फिर उस ने कश्मीर में बस के सिवा कुछ न देखा था. रेलगाड़ी पर जाना तो उस के लिए अजूबा था. कभी सोचता कि सब को जहर दे दे और खुद भी खा ले पर हिम्मत न पड़ती.

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