पास बैठे युवकों में से एक ने शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘की होल दादा?’’ यानी क्या हुआ भाईसाहब. सज्जन ने आग्नेय नेत्रों से पीछे पलट कर देखा पर बोले कुछ नहीं. कुछ समय और गुजरा. टोकन को बाहर न आना था, न आया. दोनों युवक मुंह दबा कर हंस रहे थे. हम तीनों मांबच्चों को कुछ समझ नहीं आया कि हो क्या रहा है.
सिक्का व्यर्थ ही खो देने का दुख था, अपना वजन न देख पाने की हताशा या फिर आसपास के लोगों के उपहास का केंद्र बन जाने की खिसियाहट, इन में से जाने कौन सी भावना के चलते उन्होंने मशीन को भरपूर मुक्का और लात जड़ दी और तेजी से अपना सामान उठा चलते बने. अब की बार दोनों युवकों के साथ नीति व अवधेश भी जोर से हंस पड़े.
एक युवक मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘बाइडो.’’ तभी दूसरे ने उसे हिंदी में बोलने को कहा.
‘‘दीदीजी, यह मशीन मैं 4 बरस से देख रहा हूं,’’ सिक्का लहराते हुए उस ने कहा.
दूसरा बोला, ‘‘हां दीदीजी, हर महीने काम के सिलसिले में 4-5 बार यहां से आनाजाना होता है, पर हम ने इस को काम करते कभी नहीं देखा. लोग सिक्का डालडाल कर इस में दुखी होते रहते हैं.’’
दूसरे युवक की हिंदी पहले युवक से अच्छी थी. दोनों ही हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे.
भय कुछ कम होने लगा. मैं ने उन के नाम पूछे.
‘‘मुकुटनाथ,’’ पहले ने कहा.
‘‘और मेरा, टुनटुन हाटीकाकोटी,’’ दूसरा बेला.
हम तीनों ही हंस पड़े. नीति ने पूछा, ‘‘अंकल, आप तो इतने स्लिम हो फिर टुनटुन नाम क्यों रखा गया आप का?’’
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