Hindi Family Story: लेखक- भगवती प्रसाद द्विवेदी- निशा आज उसी दोराहे पर खड़ी थी जिस पर कभी उस की मां खुद उद्विग्न सी छटपटा रही थी. मगर आज उचित मार्गदर्शन करने के बजाय वह निशा पर उबल पड़ी थी. आखिर क्यों?
सुरेश ने सुषमा की कलाई पकड़ ली. गुस्से से उस का दाहिना हाथ भी उठ गया.
इच्छा हुई कि वह पत्नी को दोतीन चपत लगा दे. मगर कुछ सोच कर उस ने
हाथ पीछे खींच लिया. निशा सिसकते हुए अपने कमरे में समा गई.
‘‘मारो, मारते क्यों नहीं?’’ सुषमा ने हाथ झटकते हुए कहा.
सुरेश ने कुछ भी जवाब देना उचित नहीं सम झा और अपने कमरे में वापस लौट, कुरसी खींच कर बैठ गया. फिर दाहिने हाथ की हथेली से माथा पकड़ लिया.
सुषमा भी पलक झपकते ही उसी कमरे में दाखिल हो गई.
‘‘और बहकाओ बेटी को, बदनामी तो तुम्हारी ही होगी न? मु झे क्या,’’ सुषमा ने नाकभौं सिकोड़ते हुए कहा.
काफी देर तक कोसने के बाद भी जब सुरेश ने कोई उत्तर नहीं दिया तो सुषमा पैर पटकते हुए चली गई. सुरेश ने थोड़ी देर के लिए राहत की सांस ली.
मगर तभी सुषमा के जलेकटे शब्द पिघले सीसे की मानिंद उस के कानों में उथलपुथल मचाने लगे. उसे सुषमा से सहानुभूति हो आई. हां, ठीक ही तो कह रही है वह. बदनामी तो अपनी ही होगी न?
एकाएक उस का मन उद्विग्न हो उठा. एक दफा जी में आया कि वह अभी जा कर निशा का गला दबा दे. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी. तभी उस के अंतर्मन में बसा साहित्यकार उसे बारबार धिक्कारने लगा, छि:, कैसे दोमुंहे सांप सरीखे घटिया इंसान हो तुम. साहित्य में तो ऊंचीऊंची बातें करते नहीं अघाते, हरदम आदर्श बघारते हो. मगर परदे के पीछे ऐसे नीच विचार. कितने स्वार्थी हो तुम. क्या अपने वे दिन भूल गए, तुम दोनों ने भी ऐसे ही गुल खिलाए थे. किंतु तुम दोनों के अपराध की सजा भुगतनी पड़ी एक तीसरे मासूम को. शर्म नहीं आती ऐसी ओछी बातें सोचते हुए.
सुरेश का माथा एकबारगी झन झना उठा. आंखें मूंद कर उस ने ज्यों ही सिर झटकने की चेष्टा की, 25 साल पहले का वह दृश्य उस के मानसपटल पर एकाएक अंकित हो गया.
तब सुरेश और सुषमा डाक्टर के सम्मुख खड़े हो कर गिड़गिड़ा रहे थे और डाक्टर था कि उन्हें बारबार दुत्कार रहा था. मगर दूसरा कोई चारा भी तो नजर नहीं आ रहा था. आखिर बेचारे करते भी क्या, दोनों ने पिछले साल ही महाविद्यालय में दाखिला लिया था. मैरिट लिस्ट में दोनों का पहला और दूसरा स्थान था. दोनों की ही साहित्य में गहरी अभिरुचि थी और गत वर्ष जब महाविद्यालय में वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ तो सुरेश को विपक्ष में प्रथम स्थान मिला, जबकि सुषमा ने पक्ष में प्रथम स्थान हासिल किया.
फिर तो दोनों में आहिस्ताआहिस्ता आत्मीयता बढ़ी और अब पुस्तकालय के कोने में बैठे, दोनों गपशप करते हुए किसी भी विषय पर गहराई से लैक्चर झाड़ने लग जाते थे. सुषमा यदि कक्षा में पहले आ जाती तो वह मन ही मन सुरेश की बेताबी से प्रतीक्षा किया करती और किसी कारणवश अगर सुषमा कालेज न आ पाती तो सुरेश की बेचैनी चरम सीमा पर जा पहुंचती थी.
दो जिस्म एक जान सुरेश और सुषमा - दोनों एकदूसरे के पूरक जैसे लगने लगे थे. दोनों को ही ऐसा एहसास होने लगा था कि जिस जीवनसाथी की उन्हें तलाश थी वह जैसे अनायास ही हाथ लग गया हो. उन दोनों ने ही गहराई से महसूस किया था कि एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा है. कई बार वे दोनों रिश्ते की प्रगाढ़ता को जन्मजन्मांतर तक कायम रखने की सौगंध ले चुके थे.
कालेज से छूट कर दोनों आजाद पार्क के एक कोने में छिप, बैठ जाया करते थे और उन की अंतहीन बातों का सिलसिला घंटों चला करता था. बस, बातें और बातें. युवा मन की बातें. प्रणयभरी बातें. सपनीली व रोमानी बातें.
कुछ ही माह के बाद सुरेश और सुषमा का प्यार चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका था. दोनों शीघ्रातिशीघ्र एकसूत्र में बंधने के लिए बेताब थे. मगर उन के अभिभावक शादी के पक्ष में तब तक कतई नहीं थे जब तक कि उन की पढ़ाई समाप्त नहीं हो जाती.
तभी अचानक वह हादसा हो गया. उस रोज सुषमा कुछ अनमनी सी दिख रही थी.
पार्क में एकांत पाते ही सुरेश ने ज्यों ही उदासी का कारण पूछा था, वह सुरेश के कानों में पिघला सीसा उड़ेलते हुए बोल पड़ी थी, ‘सुरेश, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं.’
‘एं, क्या कहा, तब तो बहुत बुरा हुआ,’ सुरेश ने हकलाते हुए कहा. उस की दशा भीगी बिल्ली सी हो गई थी.
खैर, दोनों ने सलाहमशविरा किया और तत्काल अस्पताल में दाखिल हुए.
‘डाक्टर, किसी भी शर्त पर एबौर्शन की व्यवस्था कर दीजिए, प्लीज,’ सुरेश के चेहरे से बेबसी झलक रही थी.
मगर डाक्टर ऐसा करने के लिए कतई तैयार न था.
आखिर सुषमा के धैर्य का बांध टूट पड़ा और वह सिसकते हुए डाक्टर के पैरों से लिपट गई थी, ‘अब हमारी इज्जत आप के हाथों में है, डाक्टर.’
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