सभी कुछ था वहां, स्टेशनों में आमतौर पर पाई जाने वाली गहमागहमी, हाथों में सूटकेस और कंधे पर बैग लटकाए, चेहरे से पसीना टपकाते यात्री, कुछ के पास सामान के नाम पर मात्र एक बैग और पानी की बोतल, साथ ही, अधिक सामान ले कर यात्रा करने वालों के लिए एक उपहास उड़ाती सी हंसी. कुछ बेचारे इतने थके हुए कि मानो एक कदम भी न चल पाएंगे. कुछ देरी से चल रही ट्रेनों की प्रतीक्षा में प्लेटफौर्म पर ही चादर बिछा कर, अपनी अटैची या बैग को सिरहाना बनाए लेटे हुए या सोये हुए थे. कुछ एकदम खाली हाथ हिलाते हुए निर्विकार, निरुद्देश्य से चले जा रहे थे.
यात्रियों की ऐसी ही विविध प्रजातियों के बीच खड़ी थी मैं और मेरे 2 बच्चे. सफर तो हम भी बहुत लंबा तय कर के आ रहे थे. सामान भी काफी था. तीनों ही अपनेअपने सूटकेस पकड़े हुए थे. किसी पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं था. अवधेश, मेरा बेटा, बहुत सहायता करता है ऐसे समय में. बेटी नीति तो अपना बैग उठा ले, वही बहुत है.
मन में कुछ घबराहट थी. यों तो अनेक बार अकेले सफर कर चुकी थी किंतु पूर्वोत्तर के इस सुदूर असम प्रदेश में पहली बार आना हुआ था. मेरे पति प्रकाश 8 माह पूर्व ही स्थानांतरण के बाद यहां आ चुके थे. बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान न हो, इसीलिए स्कूल के सत्र-समापन पर ही हम अब आए थे. मेरी घबराहट का कारण था, यहां आएदिन होने वाले प्रदर्शन, अपहरण, बम विस्फोट और इसी तरह की अराजक घटनाएं जिन के विषय में आएदिन समाचारपत्रों व टैलीविजन में देखा व पढ़ा था. रेलवे स्टेशनों पर पटरियों पर आएदिन अराजक तत्त्व कुछ न कुछ अनहोनी करते थे. किंतु अपनी घबराहट की ‘हिंट’ भी मैं बच्चों को नहीं देना चाहती थी. ‘खामखाह, दोनों डर जाएंगे,’ मैं ने सोचा. अवधेश मेरे चेहरे, मेरे हावभाव से मेरी मनोदशा का एकदम सटीक अनुमान लगा लेता है, इसीलिए प्रयास कर रही थी कि उसे पता न चले कि उस की मम्मी थोड़ी डरी हुई है.
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