कुछ ही देर में वहां 2 युवक आए, कुछ क्षण चारों ओर देखा, फिर हमारी बैंच के समीप ही अपना सामान रखने लगे. एक दृष्टि उन पर डाली. गौरवर्ण, छोटीछोटी आंखें और गोल व भरा सा चेहरा...वहां के स्थानीय लोग लग रहे थे. सामान के नाम पर 2 बड़े बोरे थे जिन का मुंह लाल रंग की प्लास्टिक की डोरी से बंधा था. एक बक्सा स्टील का, पुराने समय की याद दिलाता सा. एक सरसरी नजर उन्होंने हम पर डाली, आंखों ही आंखों में इशारों से कुछ बातचीत की, और दोनों बोरे ठीक हमारी बैंच के पीछे सटा कर लगा दिए. बक्से को अवधेश की ओर रख कर तेजी से वे दोनों वहां से चले गए.
वे दोनों कुछ संदिग्ध लगे. मेरा मन किसी बुरी आशंका से डरने लगा, ‘अब क्या होगा,’ सोचतेसोचते कब मेरी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे, पता नहीं. क्या होगा इन बोरों में? कहीं बम तो नहीं? दोनों पक्के बदमाश लग रहे थे. सामान छोड़ कर कोई यों ही नहीं चला जाता. पक्का, इस में बम ही है. बस, अब धमाका होगा. घबराहट में हाथपांव शिथिल हो रहे थे. बस दौड़ रहे थे तो मेरी कल्पना के बेलगाम घोड़े. कल सुबह के समाचारपत्रों की हैडलाइंस मुझे आज, इसी क्षण दिखाई दे रही थीं... ‘सिमलगुड़ी रेलवे स्टेशन पर कल रात हुए तेज बम धमाकों में कई लोग घायल, कुछ की स्थिति गंभीर.’ हताहतों की सूची में अपना नाम सब से ऊपर दिख रहा था. प्रकाशजी का गमगीन चेहरा, रोतेबिलखते रिश्तेदार और न जाने क्याक्या. पिछले 10 सैकंड में आने वाले 24 घंटों को दिखा दिया था मेरी कल्पना ने.
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