Romantic Story: लेखक - भुवनचंद्र जोशी - सरिता, बीस साल पहले, दिसंबर (प्रथम) 2005 - अपने शौक के चलते मैं ने एक तोते के बच्चे को खरीद कर पिंजरे में बंद कर दिया लेकिन कुछ समय बाद जब तोतों के  झुंड को देख उस तोते ने उड़ने की कोशिश की तो पिंजरे में उस की छटपटाहट व बेचारगी ने हम सब को विचलित कर दिया.
एक दिन मैं तोते का बच्चा खरीद कर घर ले आया. उस के खाने पीने के लिए 2 कटोरियां पिंजरे में रख दीं. नया नया कैदी था, इसलिए अकसर चुप ही रहता था. हां, कभी कभी  टें, टें की आवाज में चीखने लगता.
घर के लोग कभी कभी उस निर्दोष कैदी को छेड़ कर आनंद लेते लेकिन खाने के वक्त उसे भी खाना और पानी बड़े प्यार से देते थे. वह एक दो कौर कुट-कुटा कर, बाकी छोड़ देता और टें, टें शुरू कर देता. फिर चुपचाप सींखचों से बाहर देखता रहता.
उसे रोज इंसानी भाषा बोलने का अभ्यास कराया जाता. पहले तो वह ‘हं, हं’ कहता था जिस से उसकी समझ में न आने और आश्चर्य का भाव जाहिर होता पर धीरे धीरे वह आमाम, आमाम कहने लगा.
अब वह रोज समय पर खाना या पानी न मिलने पर कटोरी मुंह से गिरा कर संकेत भी करने लगा, फिर भी कभी कभी वह बड़ा उदास बैठा रहता और छेड़ने पर भी ऐसा प्रतिरोध करता जैसे चिंतन में बाधा पड़ने पर कोई मनीषी क्रोध जाहिर कर फिर चिंतन में लीन हो जाता है.
एक दिन तोतों का एक बड़ा झुंड हमारे आंगन के पेड़ों पर आ बैठा. उन की टें, टें से सारा आंगन गूंज उठा. मैं ने देखा कि उन की आवाज सुनते ही पिंजरे में मानो भूचाल आ गया. पंखों की निरंतर फड़फड़ाहट, टें, टें की चीखों और चोंच के क्रुद्ध आघातों से वह पिंजरे के सींखचों को जैसे उखाड़ फेंकना चाहता था. उस के पंखों के टुकड़े हवा में बिखर रहे थे. चोंच लहूलुहान हो गई थी. फिर भी वह उस कैद से किसी तरह मुक्त होना चाहता था.  झुंड के तोते भी उसे आवाज दे कर प्रोत्साहित करते जैसे लग रहे थे.
झुंड के जाने के बाद उस का उफान कुछ शांत जरूर हो गया था लेकिन क्षत विक्षत उस कैदी की आंखों में गुस्से की लाल धारियां बहुत देर तक दिखाई देती रहीं. उसकी इस बेचारगी ने घर के लोगों को भी विचलित कर दिया और वे उसे मुक्त करने की बात करने लगे, लेकिन बाद में बात आई गई हो गई.
कुछ दिनों बाद की बात है. एक दिन मैं ने इस अनुमान से उस का पिंजरा खोल दिया कि शायद वह उड़ना भूल गया होगा. द्वार खुला, वह धीरे धीरे पिंजरे से बाहर आया. एक क्षण रुक कर उस ने फुरकी ली और आंगन की मुंडेर पर जा बैठा. उस के पंखों और पैरों में लड़खड़ाहट थी.
फिर भी वह अपनी स्वाभाविक टें, टें के साथ एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता जा रहा था. उस के बाद वह पहाड़ी, सीढ़ीदार खेतों पर बैठता उड़ता हुआ घर से दूर होने लगा.
अपनी भूल पर पछताता मैं और गांव भर के बच्चे तोते के पीछे पीछे उसे पुचकार कर बुलाते जा रहे थे और वह हम से दूर होता जा रहा था. मैं ने गौर किया कि उस की उड़ान में और तोतों जैसी फुरती नहीं थी. उस की इस कमी को लक्ष्य कर मुझे शंका होने लगी कि अगर वह लौटा नहीं तो न तो अपने साथियों के साथ खुले आकाश में उड़ पाएगा और न ही अपना दाना जुटा पाएगा.
तोते को भी जैसे अपनी लड़खड़ाहट का एहसास हो चुका था. इसीलिए कुछ दूर जाने पर वह एक पेड़ की डाल पर बैठा ही रह गया और उसे पुचकारते हुए मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने भी डरते झिझकते अपने आप को मेरे हवाले कर दिया.
काश, उस ने अपनी लड़खड़ाहट को अपनी कमजोरी न मान लिया होता तो वह उसी दिन नीलगगन का उन्मुक्त पंछी होता. मगर वह अपनी लड़खड़ाहट से घबरा कर हिम्मत हार बैठा और फिर से पिंजरे का पंछी हो कर रह गया.
करीब साल भर बाद, एक दिन फिर उस के उड़ने की जांच हुई. अब की बार खुले में पिंजरा खोलने का जोखिम नहीं लिया गया. घर की बैठक में 2 बड़ी जालीदार खिड़कियों को छोड़ कर बाकी रास्ते बंद कर दिए गए. पिंजरा खोला गया. कुछ दूर खड़े हो कर हम सब उसे ही देखने लगे. पहले वह खुले द्वार की ओर बढ़ा. फिर रुक कर गौर से उसे देखने लगा.
उस ने एक फुरकी ली लेकिन द्वार की ओर नहीं बढ़ा. हमें लगा कि हमारे डर से वह बाहर नहीं आ रहा है. हम सब ओट में हो कर उसे देखने लगे लेकिन वह दरवाजे की तरफ फिर भी नहीं बढ़ा. कुछ देर बाद वह दरवाजे की ओर बढ़ा जरूर लेकिन एक निगाह बाहर डाल कर फिर पिंजरे में मुड़ गया. फिर पिंजरे से निकल कर बाहर आया. हम सब उत्सुकता से उसे ही देख रहे थे. उस ने एक लंबी फुरकी ली, जैसे उड़ने से पहले पंखों को तोल रहा हो. वह पहली मुक्ति के समय की अपनी बेबसी को शायद भूल गया था.
उस ने दो तीन जगह अपने पंखों को चोंच से खुजलाया और  झटके से पंखों को फैलाया कि एक ही उड़ान में वहां से फुर्र हो जाए लेकिन पंख केवल फड़फड़ा कर रह गए. वह चकित था. उस ने एक उड़ान भर कर पास के एक टीले तक पहुंचना चाहा, लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही जमीन पर गिर पड़ा और फड़फड़ाने लगा. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे हो क्या गया है. वह बार बार उड़ने की कोशिश करता और हर बार मुंह की खाता.
अंत में, थका हारा पिंजरे की परिक्रमा करने के बाद वह द्वार पर आ रुका. उस ने एक निराश नजर अपने चारों ओर डाली और सिर  झुका कर धीरे धीरे पिंजरे के अंदर चला गया. मुड़ कर एक बार फिर ललचाई नजरों से उस ने पिंजरे के खुले द्वार को निहारा और हताशा से मुंह फेर लिया. पिंजरे में अपनी चोंच को पंखों के बीच छिपा कर आंख मूंद खामोश बैठ गया. अब चाह कर भी वह उस दिन पिंजरे को छोड़ कर नहीं जा सकता था.
वह शायद पछता रहा था कि मैं ने उस दिन उड़ जाने का मौका क्यों खो दिया. काश, उस दिन थोड़ी हिम्मत कर के मैं उड़ गया होता तो फिर चाहे मेरा जो होता, इस गुलामी से लाख गुना बेहतर होता, पर अब क्या करूं? उस ने मान लिया कि मुक्त उड़ान का, खुले आकाश का, बागों और खेतों की सैर का, प्रकृति की ममतामयी गोद का और नन्हे से अपने घोंसले का उस का सपना भी उसी की तरह इस पिंजरे में कैद हो कर रह जाएगा और एक दिन शायद उसी के साथ दफन भी हो जाएगा.
मुझे लगा जैसे आज उसका रोम रोम रो रहा है और वह पूरी मानव जाति को कोसते हुए कह रहा है- ‘यह आदमी नामक प्राणी कितना स्वार्थी है. खुद तो आजाद रहना चाहता है पर आजाद पंछियों को कैद कर के रखता है. ऊपर से हुक्म चलाता है, यह जताने के लिए कि कोई ऐसा भी है जो उस के इशारों पर नाचता है. मुझे कैद कर दिया पिंजरे में. ऊपर से हुक्म देता है, यह बोलो, वह बोलो. बोल दिया तो ‘शाबाश’ कहेगा, लाल फल खाने को देगा. न बोलो तो डांट पिलाएगा.
‘मुझे नहीं सीखनी इंसान की भाषा. खुद तो बोल बोल कर इंसानों ने इंसानियत का सत्यानाश कर रखा है और हमें उन के बोल बोलने की सीख देता है. कहां बोलना है, कैसे बोलना है और कितना बोलना है, यह इंसान अभी तक समझ नहीं पाया. इसे इंसान सम झ लेता तो बहुत से दंगे फसाद,  झगड़े और उपद्रव खत्म हो जाते.
‘चला है मुझे सिखाने, मेरी चुप्पी से ही कुछ सीख लेता कि दर्द अकेले ही सहना पड़ता है. फिर चीख पुकार क्यों? इतना भी इंसान की समझ में नहीं आता. बहुत श्रेष्ठ समझता है अपने आप को. शौक के नाम पर पशु पक्षियों को कैद कर के उन पर हुक्म चलाता है और कहता है, ‘पाल’ रखा है.
‘कुत्तेबिल्ली इसलिए पालता है कि उन पर धौंस जमा सके. दुनिया को दिखाना चाहता है कि देखो, ये कैसे मेरा हुक्म बजा लाते हैं. कैसे मेरे इशारों पर जीते मरते हैं. हुक्म चलाने की, शासन करने की, अपनी आदम इच्छा को आदमी न जाने कब काबू कर पाएगा? इसीलिए तो निरंकुश घूम रहा है सारी सृष्टि में.
‘इंसान मिलजुल कर क्या खाक रहेगा, जबकि इसे दूसरा कोई ऐसा चाहिए जिस पर यह हुक्म चलाए. जब तक लोग हैं तो लोगों पर राज करता है. लोग न मिलें तो हम पशु पक्षियों पर रोब गांठता है. जब लोगों ने हुक्म मानने से यह कहते हुए मना कर दिया कि जैसे तुम, वैसे हम. तो फिर तुम कौन होते हो हम पर राज
करने वाले? तब शामत हम सीधे साधे पशु पक्षियों पर आई. किसी ने मेरी बिरादरी को पिंजरे में डाला तो किसी ने प्यारी मैना को. किसी ने बंदर को धर पकड़ा तो किसी ने रीछ की नाक में नकेल डाल दी.
‘इंसान है कि हमें अपने इशारों पर नचाए जा रहा है. हमें नाचना है. हमारी मजबूरी है कि हम इंसान से कमजोर हैं. हमारे पास इंसान जैसा शरीर नहीं. हमारे पास आदमी जैसा फितरती दिमाग नहीं. आदमी जैसा सख्त दिल नहीं. हम आदमी जैसे मुंहजोर नहीं. इसीलिए हम बेबस हैं, लाचार हैं और इंसान हम पर अत्याचार करता चला आ रहा है.
काश, इंसान में यह चेतना आ जाए कि वह किसी को गुलाम बनाए ही क्यों? खुद भी आजाद रहे और दूसरे प्राणियों को भी आजाद रहने दे. जैसे जैसे ऐसा होता जाएगा वैसे वैसे यह दुनिया सुघड़ होती जाएगी, सुंदर होती जाएगी, सरस होती जाएगी. जब आदमी के ऊपर किसी का शासन होगा तब उसकी समझ में आएगा कि आजाद रहने और आजाद रहने देने का आनंद क्या है, बंद आकाश और खुले आकाश का अंतर क्या है? तब आदमी महसूस करेगा कि जब वह हम पशु पक्षियों को अपना गुलाम बनाता है तो हम पर और हमारे दिल पर क्या गुजरती है.’
तोते की टें...टें की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. मैं  झटके से उठा. खूंटी पर से तोते का पिंजरा उतारा और चल पड़ा  झुरमुट वाले खेतों की ओर.
खेत शुरू हो गए थे. पकी फसल की बालियां खाने के लिए हरे चिकने तोते  झुरमुट से खेतों तक उड़ान भरते और चोंच में अनाज की बाली लिए लौटते.  झुरमुट और खेत दोनों में उन के टें...टें के स्वर छाए थे. पिंजरे का तोता भी अब चहकने लगा था.
मैं रुक गया और पिंजरे को अपने चेहरे के सामने ले आया और ‘पट्टूपट्टू’ पुकारने लगा. वह पिंजरे में इधर से उधर व्याकुलता से घूमता जा रहा था. बीच बीच में पंख भी फड़फड़ाता जाता. उस में अप्रत्याशित चपलता आ गई थी. शायद यह दूसरे तोतों की आवाज का करिश्मा था जो वह मुक्ति के लिए आतुर हो रहा था.
मैंने ज्यादा देर करना ठीक नहीं सम झा. पिंजरे का द्वार  झुरमुटों की तरफ कर के खोला और प्यार से बोला, ‘‘जा, उड़ जा. जा, शाबाश, जा.’’
वह सतर्क सा द्वार तक आया. गर्दन बाहर निकाल कर जाने क्या सूंघा, पंख फड़फड़ाए और उड़ गया. एक छोटी सी उड़ान. वह सामने के पत्थर पर जा टिका. एक क्षण वहां रुक कर पंख फड़फड़ाए और फिर उड़ान ली. यह उड़ान, पहली उड़ान से कुछ लंबी थी.
अब वह एक  झाड़ी पर जा बैठा. उस के बाद उड़ा तो एक जवान पेड़ की लचकदार डाल पर जा बैठा. उस के बैठते ही डाल  झूलने लगी. उस ने एक दो  झूले खाए और फिर यह जा, वह जा, तोतों के  झुंड में शामिल हो गया. मैं ने संतोष की सांस ली.
लौटने लगा तो हाथ में खाली पिंजरे की तरफ ध्यान गया. एक पल पिंजरे को देखा और विचार कौंधा कि सारे खुराफात की जड़ तो यह पिंजरा ही है. यह रहेगा, तो न जाने कब किस पक्षी को कैद करने का लालच मन में आ जाए.
मैं ने घाटी की ओर एक सरसरी नजर डाली और पिंजरे को टांगने वाले हुक से पकड़ कर हाथ में तोलते हुए एक ही  झटके से उसे घाटी की तरफ उछाल दिया. पहाड़ी ढलान पर शोर से लुढ़कता पिंजरा जल्दी ही मेरी आंखों से ओझल हो गया.
घर लौटते समय मैं खुद को ऐसा हलका महसूस कर रहा था जैसे मेरे भी पंख उग आए हों.

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