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लेखक-अरुण अलबेला

‘‘आप ने शायद यह कहा कि हरदम आप की ही नहीं चलेगी. हम ने बेटी ब्याही है, बेची नहीं है.’’

‘‘नहीं, मेरे कहने का तात्पर्य...’’ उन का स्वर धीमा हो लड़खड़ा गया, ‘‘पिछली बार मोना थोड़े दिनों के लिए आई थी, तो संतोष बाबू जल्दी ले  गए. अब भी ले जाना चाहते हैं. मोना  1-2 माह रहे तो क्या हर्ज?’’

मैं ने उन्हें लपेटा, ‘‘लगता है, आप के बोलने का ढंग ही कुछ गलत था, जो संतू को पसंद नहीं आया. उस ने अपनी मां को बताया तो न उसे अच्छा लगा, न मु झे ही.’’

राजन बाबू  झेंपे, ‘‘मेरे मुंह से अगर ऐसी कोई बात निकल गई तो उन्हें उसे भूल जाना चाहिए था. बता कर आप सब को आवेशित करने की क्या जरूरत थी?’’

उन की गोलमटोल बातें मु झे आवेशित कर बैठीं. मैं बोला, ‘‘राजन बाबू, क्या  झूठ है, क्या सच, आप जानें, पर यह सच है कि हरदम हमारी नहीं चली है, आप अपनी चलाते रहे हैं. विवाह से पहले आप स्वामीजी की बातों में आ कर अपनी मरजी हम पर लादते रहे, जैसे हम ही लड़की वाले हों. आप ने गरीबी का रोना रो कर सादी शादी करनी चाहिए हम मान गए, क्या  झूठ है?

‘‘आप ने कहा कि मंडप में 8 आदमी से अधिक नहीं खिला सकते. मैं ने यह बात भी मान ली, हालांकि मेरे रिश्तेदार मु झ पर नाराज हुए,’’ यह सब सुन कर वे चुप रहे.

मैं फिर बोला, ‘‘आप स्वामीजी की बातों में आ कर मेरे गले में पीतल का हार डाल बैठे और सब को जताया कि सोने का हार डाल रहे हैं. आप की इज्जत बचाने के लिए मैं शांत रहा. मेरे दामादों ने इसे सच सम झा और मु झे उन्हें सोने की अंगूठियां देनी पड़ीं. आप हरदम छोटीछोटी गलतियां करते रहे, पर मैं ने ध्यान नहीं दिया. कुछ ऐसी ही छोटी गलती आप संतू से भी कर बैठे हैं और वह शांत न रह कर नाराज हो बैठा है.’’

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