लेखक-अरुण अलबेला
मेरे बेटे संतू के चेहरे पर अकस्मात उभरा आवेश मैं ने अच्छी तरह महसूस किया था. वह चोंगा पटक कर गहरी सांस लेने लगा था.
धनबाद से मेरे समधी राजन बाबू का जब दोबारा फोन आया तो चोंगा मैं ने ही उठाया, ‘‘हैलो.’’‘‘नमस्कार, भाईसाहब,’’ उधर से राजन बाबू बोले.
‘‘नमस्कार भाई, जब से मोना बहू आप के यहां गई है, संतू का मन नहीं लगता. वह उसे दशहरे से पहले लाना चाहता है.’’
‘‘एक माह भी तो नहीं हुआ बेटी को आए हुए,’’ राजन बाबू का स्वर उखड़ा, ‘‘आप संतोष बाबू को फोन दीजिए.’’
तब तक संतू मेरे निकट आ चुका था. रसोई में ममता, मेरी पत्नी रात के खाने की तैयारी में लगी थी. वह आटा गूंथती हांफ रही थी क्योंकि कुछ दिनों से वह बीमार थी. छाती में कफ जम गया था, सो ठीक से सांस नहीं ले पा रही थी. अस्पताल में भरती थी, तब औक्सीजन लगवानी पड़ी थी. डाक्टर ने आराम करने को कहा था. सांस उखड़ने पर वह ‘एस्थेलिन इनहेलर’ इस्तेमाल करती थी. ऐसे में मोना बहू का यहां होना जरूरी था.
कभीकभी मु झे भी रसोई संभालना पड़ जाती थी. यह सब संतू को अच्छा नहीं लग रहा था.
मोना डेढ़ माह के लिए कह कर मायके गई थी. अभी 25 दिन ही हुए थे. उस के बिना संतू को दिन काटने मुश्किल हो रहे थे. वह चाहता था, जितनी जल्दी हो, मोना आ जाए. दूसरा कारण था, अपने 14 माह के बेटे सोनू से अत्यधिक लगाव.
सोनू की उछलकूद सभी को अच्छी लगती थी. वह चलने लगा था. पापापापा कहता फिरता था. सोनू का खिलखिलाना, तुतलाना अच्छा लगता था.’