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लेखक- मनोज शर्मा

शरद की बूंदें जैसे ही तुम्हारी जुल्फों से होती हुई तुम्हारे कंधे पर गिरती हैं, तुम्हारा चेहरा यकायक खिल जाता है. सफेद ओस में तुम्हारे दाएं कपोल पर उभरा तिल अब और अधिक गहरा गया है, जैसे आसमान में काला मेघ कुछ देर के लिए ठहर गया हो. जैसेजैसे आगे बढ़ता हूं, कोहरे से ढका तुम्हारा चेहरा कहीं दूर जाता दिखता है... पर अगले ही क्षण पुनः तुम्हारी हंसती आंखें मेरे सामने आ जाती हैं.

अब लोग क्या कहेंगे... ये कहेंगे या ऐसा कहेंगे, बस इसी जुगत में पूरी जिंदगी निकाल देते हैं. आदमी के भीतर का हाल और ऊपर वाले के प्रति कितनी श्रद्धा है, बस वह ही जानता है. पर हर और अंधभक्ति है.

एक ने कहा, दूसरे ने माना. और फिर हर ओर कौपीपेस्ट. 'चांद में तो दाग है, पर आप में तो वो भी नही' यहां प्रेयसी का सम्मान है या चांद का अपमान. हर ओर खोखलापन फौजी कवायद मात्र कहनेभर के लिए या दिखाने के लिए. अब जीना इतना मुश्किल भी नहीं कि हर एक को अपराधी की नजर से तराशा जाए...

कोई ऐसा है या वैसा है या उस जैसा नहीं है, पर शायद कुछ तो अलग है. किसी का होना और सब जैसा हो कर रहना तो सामान्य सी बात है, पर अलग होने में बात ही कुछ अलग है और फिर कुछ होना कुछ न होने से अधिक बेहतर है. किसी का होना ही सार्थकता है और यही सत्य है.

कमरे से बाहर बालकनी की ओर बढ़ते हुए शार्लिन ने रेलिंग को छुआ और बाहर की ओर ताकने लगा. सिगरेट का कश खींचते हुए उस ने मेरे उदास चेहरे की ओर देखते हुए पूछा, 'क्या हुआ?' 'आज फिर बात हुई क्या घर वालों से?' वासु यानी मैं चुपचाप देखता रहा.

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