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'वासु, अब जो है यही है. इसे बदला नहीं जा सकता. हम अपने आचरण को बदल सकते हैं, पर किसी की सोच को नहीं. और फिर उन सब ने तो यह सोच बना ही रखी है कि तुम्हें नहीं स्वीकारना, फिर भी तुम?'

शार्लिन के शब्दों में मानो यथार्थ छिपा हो, जैसे बंद कमरों में नीली रोशनी फैल गई हो. बिस्तर की सलवटों की तह को पूर्ववत करता वह खिड़की से बाहर झांकने लगा. कमरे में चुप्पी, पर अंतर्मन में गहरा द्वंद्व. खिड़की से बाहर पक्षियों का झुंड पंक्तिबद्ध इधर से उधर दौड़ रहा है, बिना किसी ठौर के यहां से वहां. बादलों के बड़े पठार छोटे खंडों को मिटाते आगे बढ़ रहे हैं. कुछ भी एकसमान नहीं पहले सा.

फोन की घंटी सुनता हुआ शार्लिन फोन उठाता है, 'हेलो...' 'शार्लिन 'यस, आप कौन...? 'शार्लिन, मैं वासु का फादर.' आवाज पहचानने की कोशिश करते हुए शार्लिन ने कहा, 'ओ अंकल, आप...' 'गुड मार्निंग.' 'हां, बोलिए ना...'

'क्या वासु से बात करना चाहेंगे?' वासु मुंह हिला कर मना कर देता है. शार्लिन उस के चेहरे को देखते हुए कहता है, 'हां अंकल, मैं वासु को मैसेज देता हूं. 'यस... यस, आप को फोन करने के लिए बोलता हूं.'

'हां... ओके' 'यस, औल इज ओके.' 'जी,' फोन कट करते हुए वासु के कंधे पर हाथ रखता हुआ पुनः पूछता है, 'बताओ, क्या हुआ इस बार?' 'क्यों नहीं, तुम्हारे फोन पर फोन किया उन्होंने.' 'मुझे लग रहा है, वो गुस्से में थे. किसी वकील वगैरह की बात उन के मुंह पर...'

'खैर छोड़ो, तुम बताओ कि क्या हुआ?' शार्लिन ने जोर देते हुए पूछा, 'क्या कह रहे हो? किसी वकील की बात कर रहे थे?' मैं अभी फोन करता हूं 'ठहरो...' वासु रुको, पहले मुझे बताओ कि क्या बात बढ़ गई थी कुछ ज्यादा ही.

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