घर पहुंचते ही तीनों बेटे भागे आए. सब से छोटा मिट्ठू मां से लिपट गया.
‘ओफ, एक मिनट भी चैन नहीं. यह घर नहीं मानो मुसीबत है,’ सुभा झुं झला उठी, ‘लेखा की बेटियों को देखो, कितनी सुघड़ हैं. और एक ये हैं हमारे साहबजादे, निरे लंगूर.’
मां का इस तरह झुं झलाना रोमी को हैरानी में डाल गया. पापा के पास जा कर धीमे से फुसफुसा कर बोला, ‘मम्मी को क्या हुआ है, पापा?’
‘कुछ नहीं, बेटा, मम्मी थक गई हैं. संजू कहां है?’ बीच वाले बेटे को न देख सुशांत ने पूछा.
‘वह दादी के साथ सो गया है,’ रोमी बोला.
और दोनों बेटों को साथ लिए सुशांत अपने कमरे में चले गए. सुभा की इस मनोस्थिति में उसे कुछ देर अकेले छोड़ देने का उन का इरादा था. सुबह तक सो कर वह स्वस्थ हो लेगी.
किंतु सुभा की आंखों में नींद ही कहां थी. सपने न जाने उस के साथ कैसी आंखमिचौली खेल रहे थे. उसे लगता था जैसे उस का अपना बचपन साकार हो कर उस की बंद आंखों में समा गया है. छत पर उस के साथ खेलती लेखा, झूला झूलती लेखा, पेड़ पर चढ़ी लेखा, न जाने कितने रूप लिए थे लेखा ने. और अपने हर रूप में लेखा मानो उसे ही पुकार रही थी, ‘तुम कहां हो जिज्जी, कहां हो तुम?’
और इस तरह सारी रात सुभा करवटें बदलती रही.
किंतु दूसरे दिन सुबह जब वह उठी तो अपेक्षाकृत शांत थी. रोज की तरह चाय का प्याला अपनी सास को देने उन के कमरे में गई तो उन्होंने उस का हाथ पकड़ कर अपने पास ही बैठा लिया और प्यार से पूछा, ‘कैसी है तेरी बहन?’