दरवाजे पर पहुंचते ही मैं ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘फूफाजी?’’
बाहर दरवाजे पर खड़ी बूआजी ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘अंदर आंगन में बैठे हैं. जाओ, जा कर आरती उतार लो.’’
फूफाजी ने सुबह से ही टेलीफोन पर ‘जल्दी पहुंचो’, ‘फौरन पहुंचो’ की रट लगा रखी थी. जाने क्या आफत आन पड़ी है, यही सोच कर मैं आटो पकड़ उन के घर पहुंचा था.
फूफाजी आंगन में फर्श पर बैठे थे. उन के सामने स्टोव पर रखे बरतन में पानी उबल रहा था. पास ही सूखे रंगों की डब्बियां और प्लास्टिक की 3-4 बोतलें नीले, पीले, हरे, लाल रंगों से भरी हुई रखी थीं. पैरों के पास सफेद कपड़े के कुछ टुकड़े थे जिन पर रंगों से धारियां खींच कर उन्हें परखा गया था.
‘‘अरे, फूफाजी, आप ने कपड़े रंगने का काम शुरू कर दिया क्या?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.
‘‘तुम्हारे खानदान के सभी सदस्य क्या उलटी खोपड़ी के ही हैं?’’ अजीब सा मुंह बना कर फूफाजी बोले, ‘‘बूआभतीजे को क्या मैं रंगरेज नजर आता हूं? अगर कभी रोटी के लाले पड़ भी गए तो भीख मांगना मंजूर कर लूंगा मगर ऐसा घटिया काम नहीं करूंगा.’’
‘‘वाह, कितने ऊंचे विचार हैं,’’ बूआजी आंगन में आ गईं और मेरी ओर मुंह कर के बोलीं, ‘‘देख लो बेटा, इन्हें अपने हाथ की मेहनत की कमाई भीख मांगने से भी बुरी लगती है.’’
‘‘बुरी तो लगेगी ही,’’ बूआजी की ओर देख कर फूफाजी बोले, फिर मेरी ओर मुंह फेर कर कहने लगे, ‘‘बेटा मनोज, जरा सोचो, जिस खानदान ने ताउम्र मेहनत से जी चुराया हो...मेरा मतलब है जिस खानदान में मामूली काम के लिए भी नौकर रखे जाते थे उस खानदान का नाम लेवा, यानी कि तुम्हारा यह फूफाजी ऐसा घटिया काम कर सकता है?’’