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बूआ के बेटे की शादी थी. सब लोग पटना आए. दीपेन के मम्मीपापा, भाईभाभी और उन के दोनों बच्चे. सभी खुशमिजाज और मिलनसार थे. हां, सुंदरसलोनी भाभी बात कम कर रही थीं. शांत स्वभाव की थीं शायद. अंकिता का रिश्ता वहीं पक्का हो गया. पंडित जी ने दिन, मुहूर्त भी निकलवा दिया. दानदहेज की बात नहीं हुई. दीपेन के पापा ने मजाक में कहा- ‘समधी जी, अंकिता आप  की सब से छोटी और लाडली बेटी है. इस के लिए आप ने बहुतकुछ जोड़ कर रखा ही होगा. अब और आप को करना भी क्या है?’

शादी के दस दिन पहले दीपेन के पापा का फोन आया, ‘समधी जी, दीपेन बड़बोला लगता है लेकिन अंदर से संकोची है. उस की चाहत थी एक गाड़ी अंकिता के लिए आप उसे देते. खुद की गाड़ी खरीदने में तो काफी वक्त लग जाएगा. वैसे, वह आप से कहने को मना कर रहा था लेकिन मैं ने कहा कि इच्छा को इतना क्या दबाना. आप गाड़ी के लिए रुपए ही भेज दीजिए, दीपेन को यहां एक गाड़ी पसंद आ गई है, साढ़े दस लाख की है. लेकिन शोरूम हमारे जानपहचान वालों का है, वे डिस्काउंट दे रहे हैं. दस लाख तक में मिल जाएगी.’

पापा से कुछ कहते नहीं बना. भैया ने सुना तो ताव खा गया- ‘अरे, यह तो सरासर दहेज है. इतनी जल्दी हम कहां से लाएंगे. वे लोग लालची लग रहे हैं.’

अंकिता को बुरा लगा. एक गाड़ी मांग रहा है, वह भी मेरे लिए. भैया वह भी देना नहीं चाहता. शादी के बाद वह बदल गया है. बहन की खुशी कोई माने नहीं रखती. शादी के दिन बहुत कम बचे थे. सारी तैयारी हो चुकी थी. पैसे भी काफी खर्च हो चुके थे. मानमर्यादा की बात थी. सिर्फ इस बात के लिए शादी तोडऩा मूर्खता थी. फिर अंकिता कहां मानने वाली थी. किसी तरह रुपयों का इंतजाम कर के उन लोगों को देना ही पड़ा.

उस के बाद शादी के दिन तक बड़े सलीके से कभी चेन, कभी अंगूठी, कभी सोफा कम बैड और कभी जाने क्याक्या सामानों की डिमांड की गई. अंकिता प्यार में इस तरह अंधी थी, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह डिमांड ही दहेज है. भाई, पापा समझाना चाहते तो उसे लगता, ये लोग आज भी दीपेन को दिल से स्वीकार नहीं कर रहे. मां ठीक से समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे. बेटी का दिल भी नहीं तोडऩा चाहती थी और पति व बेटे  के तर्क भी सही लग रहे थे.

…और अंकिता शादी के बाद इलाहाबाद आ गई. बेहद खुश थी वह. घर ज्यादा बड़ा नहीं था. तीन छोटेछोटे कमरे थे. छोटा सा ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. वह सोचती, यहां रहना कितने दिन है. उसे बेंगलुरू जाना है.

उस के कमरे में जेठानी के बच्चे दिनभर उधम मचाते, चहकते रहते. उसे बहुत अच्छा लगता. सभी उस से खूब बातें करते, स्नेह लुटाते. जेठानी कम ही बात करती. अंकिता किचन में जाती तब वह कहती- ‘थोड़े दिन आराम कर लो, फिर काम करना ही है.’

धीरेधीरे उस ने गौर करना शुरू किया. उस के सामने सभी ठीक से बात करते लेकिन वह कमरे में होती तो ऐसा लगता वे लोग आपस में खुसरफुसर कर रहे हैं. यदि अचानक वह उन के पास चली जाती, सभी एकाएक चुप हो जाते और उस से बात करने लगते.

एक दिन दोपहर में सभी आराम कर रहे थे. जेठ घर पर नहीं थे. दीपेन लेटेलेटे झपकी लेने लगा. वह उठ कर जेठानी के कमरे में गई. उन्होंने उसे प्यार से अपने पास बैठाया- ‘दीपेन सो रहा है क्या?’

‘हां दीदी, तभी आप के पास चली आई, उस ने मुसकरा कर कहा.

यह कैसा सवाल है, उस ने सोचा. इतने में दीपेन आ गया, ‘अरे यार, तुम यहां हो.  कम औन यार,’ उस ने ऐसी अदा से  यह सब कहा कि वह हंस कर उठ गई. बात अधूरी रह गई लेकिन जेठानी का सवाल उस का पीछा करता रहा. उस ने गौर किया कि हर वक्त कोई न कोई साए की तरह उस के साथ रहता है. वह जेठानी से ज्यादा घुलमिल न पाए, ऐसी कोशिश सब की होती है.

एक दिन शाम में जेठानी नाश्ता बना रही थी. वह किचन में हैल्प करने गई. उस ने देखा, पकौडिय़ां तलते हुए जेठानी की आंखें आंसुओं से तर हैं. उस ने पूछ लिया, ‘दीदी, आप रो रही हैं?’

‘अरे नहीं, प्याज काटे थे न? मेरी आंखों में प्याज ज्यादा लगता है,’ उस ने जल्दी से आंसू पोंछते हुए कहा.

अंकिता ने ताड़ लिया, प्याज नहीं रुला रहे हैं, कोई और बात है.

दसबारह दिन निकल गए.  उन लोगों की छुट्टियां खत्म होने वाली  थीं. दीपेन ने रात में कहा- ‘मैं बैंगलुरु जा रहा हूं. मम्मीपापा चाहते हैं, तुम कुछ दिन उन के साथ रहो.’

‘तुम्हें पता है, हमें और छुट्टी नहीं मिल पाएगी.’

‘अरे यार, अब उस की क्या जरूरत है? मैं भी किसी दूसरी कंपनी में जाने की सोच रहा हूं. वहां हमारी तनख्वाह भी कम है. कभीकभी सोचता हूं अपना काम शुरू करूं.’

‘शादी के पहले तो हमारी ऐसी कोई प्लानिंग नहीं थी?’

‘अब है न.  तुम इतने सवाल क्यों कर रही हो?’ दीपेन का स्वर बदला हुआ था.

अंकिता ने बात आगे नहीं बढ़ाई लेकिन उसे लगा इस से पहले उस का इतना रूखा व्यवहार कभी नहीं था. उस ने सोचा, हो सकता है मम्मीपापा से किसी बात पर टैंशन हुई हो. कुछ दिन यहीं रुक कर एंजौय कर लेती हूं. कौन यहां परमानैंट रहना है.

दीपेन  2 दिनों बाद चला गया. जेठानी से अभी भी वह घुलमिल नहीं पाती थी. जब भी दोनों बात कर रही होतीं, सास उन्हें किसी बहाने अलगअलग काम पर लगा देतीं. उसे लगने लगा, कोर्ई बात है. वह अपने मम्मीपापा से भी ज्यादा बात नहीं कर पाती. उस के जाने के बाद दोनों बच्चे उस के साथ ही सोते. सास भी उसी कमरे में सोने लगी थी. भला नई बहू को अकेले कैसे छोड़े.

दीपेन को गए एक हफ्ता गुजर गया. वह दिन में फोन करती तो यह कह कर बात न करता कि आजकल काम का दबाव बढ़ गया है, सारे पेंडिंग काम निबटाने हैं. रात में दोचार मिनट बात करता, थोड़ाबहुत मांपापा से बात करता और फोन कट.

एक रात बहुत तेजतेज आवाज सुन कर वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. आवाज दूसरे कमरे से आ रही थी. वह उठ कर ड्राइंग रूम में आई. आवाज भाभी के कमरे से आ रही थी. सब लोग शायद वहीं थे. वह दबे पांव कमरे की तरफ बढ़ी. दरवाजा भिडक़ा हुआ था. उस ने हलके सूराख से अंदर देखने की कोशिश की. ‘चटाक.’ उसी वक्त ससुर ने जेठानी के गाल पर तमाचा जड़ा. वह कांप गई. जेठानी ऐसे निरीह खड़ी थी जैसे कसाई के सामने मेमना.

‘पापा, गुस्से को काबू में रखिए. दूसरे कमरे में अंकिता सो रही है. मैं देखता हूं,’ जेठ ने कहा.

ससुर गुस्से से तमतमाते हुए कुछ बड़बड़ा रहे थे. वह जल्दी से दबे पांव अपने कमरे में आ गई. आंखें बंद कर सोने का नाटक किया लेकिन उस ने अभीअभी जो देखा था, वह उस की आंखों के सामने से हट नहीं रहा था. थोड़ी देर में सास आई, लाइटवाइट जला कर चैक किया कि इस बीच वह जागी तो नहीं. जब यकीन हो गया कि  सब ठीक है, तब वह भी उस के बगल में सो गई.

‘भला यह भी कहने की बात है? शादी में समधी जी दिली खोल कर खर्च करेंगे. यह शादी शानदार होगी, क्यों समधी जी?’ दीपेन की मां ने हंस कर कहा.

सुबह सब कुछ नौर्मल था. श्वेता दी की आंखें सूजीसूजी थीं  लेकिन वह हर दिन की तरह किचन में थी. नौदस बजे के करीब उस ने देखा, ड्राइंगरूम में कोई बैठा था जिस से ससुर और जेठ बातें कर रहे थे. वह आदमी धीरेधीरे लेकिन कुछ तुनक कर बात कर रहा था. ससुर और जेठ उसे आहिस्ताआहिस्ता शांत करने में लगे थे. उस की समझ में कुछ नहीं आया. हवा में तैरती बातों के टुकड़ों को मिलाने पर लगा जैसे वह आदमी अपनी बकाया रकम मांग रहा था. घर खाली करने जैसी भी बात थी शायद. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. किससे पूछे वह? कैसे जाने इस घर की रहस्मयी बातें. उस ने पति से बात करना चाहा. हायहेलो के बाद पूछा, ‘दीपेन, तुम कब आ रहे हो?’

‘अभी थोड़ा वक्त लगेगा. अब सोच रहा हूं रिजाइन कर के ही आऊं.’

उसे शाक हुआ. वह किसी और बात के लिए फोन कर रही थी, यहां एक नया धमाका था- ‘क्यों, क्या दूसरा जौब मिल गया?’

‘दिनभर काम करता रहूंगा तो जाब कैसे मिलेगी? अब वहां आ कर इत्मीनान से ट्राई करूंगा. यार, एक बात और है. मैं खुद का काम शुरू करना चाहता हूं. अपने पापा से कहो न कि अभी कुछ मदद कर दें. मैं बाद में लौटा दूंगा. अभी चारपांच लाख ही दे दें, फिर देखते हैं.’

दीपेन ने बड़े इत्मीनान से यह सब कहा लेकिन अंकिता  के दिल में लगी.  दीपेन का ऐसा रूप अभी तक नहीं दिखा था. उस ने भरे गले से कहा- ‘पापा से  कैसे कहें, अभीअभी शादी में इतना खर्च किया है…’

‘उन्होंने नया क्या किया है? बेटी की शादी में कौन खर्च नहीं करता? तुम लाडली हो उन की, तुम्हारे लिए इतना नहीं कर सकते?’

और उस ने फोन काट दिया . अंकिता कट कर रह गई.

दोपहर में सब के खाने के बाद श्वेता किचन समेट रही थी. अंकिता पानी लेने गई, धीरे से पूछा, ‘दीदी, रात में क्या हुआ था?’ श्वेता की आंखें डबडबा गईं. उस ने इधरउधर देखा और ब्लाउज में छिपा कर रखा तुड़ामुड़ा कागज निकाल कर जल्दी से उसे थमा दिया. बहुत धीरे से फुसफुसाई- ‘सब की नजर बचा कर इसे पढ़ लेना.’ श्वेता की आंखें भरी थीं, गला भरा था लेकिन पत्र देते समय उस के चेहरे पर दृढ़ता का भाव आ गया. अंकिता भौचक थी. उस ने जल्दी से पत्र ले कर  छिपा लिया और कमरे में आ गई.

सासससुर ड्राइंगरूम में थे. सास सीरियल देख रही थी. उस  ने जल्दी से  वह  कागज निकाला और बिना सांस लिए पढऩे लगी.

‘प्रिय अंकिता,

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