कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

मोहिनी शिप्रा के पास से  सीधे कैंटीन की ओर चल दी थी. वह आशीष को यह समाचार उस के अन्य मित्रों के सामने देना चाहती थी. और फिर उस के चेहरे पर आए भावों का आनंद उठाना चाहती थी. वह मूर्ख समझता था, मैं उस से विवाह करूंगी, पर उसे तो शिप्रा जैसी साधारण लडक़ी भी धता बता गई. वह सोच रही थी.

कैंटीन में आशीष को न पा कर वह घर की तरफ चल पड़ी. अंतिम पीरियड में एक क्लास बाकी थी, पर वह उस के लिए दो घंटों तक प्रतीक्षा नहीं करना चाहती थी. वैसे भी प्रयोगात्मक परीक्षा समाप्त होने के पश्चात किसी की कालेज आने में कोई रुचि नहीं बची थी.

परीक्षा की तैयारी के बीच समय कब कपूर बन के उड़ गया, मोहिनी को पता ही नहीं चला. पहले वह और शिप्रा लगातार फोन पर एकदूसरे से संपर्क में रहते थे, पर अब शिप्रा कभी फोन नहीं करती थी और बारबार शिप्रा को फोन करने में मोहिनी का अहम आड़े आ रहा था.

‘‘पता नहीं क्या समझती है अपनेआप को शिप्रा, यदि उसे मेरी चिंता नहीं है तो मैं भी परवाह नहीं करती,’’ मोहिनी ने मानो स्वयं को ही आश्वासन दिया था.

शिप्रा का विवाह मोहिनी से पहले ही हो गया था. माना अब उन की मित्रता में पहले जैसी बात नहीं थी, पर अपने विवाह में शिप्रा ने उसे आमंत्रित तक नहीं किया. यह बात मोहिनी को बहुत अखर गई थी. वह शिप्रा को ऐसा सबक सिखाना चाहती थी जिसे वह जीवनभर याद रखे, पर शिप्रा ने तो सभी संपर्क सूत्र तोड़ कर उस का अवसर ही नहीं दिया था.

शीघ्र ही मोहिनी का विवाह भी कोविड प्रोटोकोल से पहले संपन्न हो गया था. पर विवाह के बाद मोहिनी ने ससुराल में जो देखा उस से वह तनिक भी संतुष्ट नहीं थी. माना बड़ा व्यावसायिक घराना था. पर उस के पति का काम केवल अपने पिता और भाइयों का हुक्म बजा लाना था. परिवार में आर्थिक व मानसिक किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी. वहां चार दिन में ही उस का दम घुटने लगा था. उस का सारा क्रोध अपने पति परेश पर ही उतरता.

‘‘विवाह के नाम पर मेरे साथ सरासर धोखा हुआ है,’’ एक दिन आंखों में आंसू भर कर मोहिनी ने अपना आक्रोश प्रकट किया था.

‘‘कैसा धोखा? क्या कह रही हो तुम? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है,’’  परेश ने हैरानी प्रकट की थी.

‘‘मुझे बताया गया था कि बहुत बड़ा व्यावसायिक घराना है. करोड़ों का व्यापार है.’’

‘‘तो इस में गलत क्या है? चारपांच शहरों में फैला कारोबार क्या तुम्हें नजर नहीं आता? सौ करोड़ से अधिक की मिल्कीयत है हमारी. और यदि यह तुम्हें हमारे व्यावसायिक घराना होने का सुबूत नहीं लगता तो मुझे कुछ नहीं कहना. वैसे भी मुझे नहीं लगता कि हम ने कभी अपने घराने की प्रशंसा के पुल बांधे थे.’’

‘‘कितनी भी हैसियत क्यों न हो आप के घराने की, पर परिवार में आप की हैसियत क्या है? मेरी हैसियत तो आप से जुड़ी है. आप तो केवल अपने पिता और बड़े भाई के आज्ञाकारी सेवक हैं.’’

‘‘क्या बुराई है आज्ञाकारी सेवक होने में? हमारे परिवार में यह संस्कार बचपन में ही डाले जाते हैं. परिवार में कड़ा अनुशासन ही व्यवसाय को दृढ़ आधार प्रदान करता है. उच्छृंखलता हमें केवल विनाश की ओर ले जाती है. कहीं अपनी सहेली शिप्रा की बातों में तो नहीं आ गई, जहां कोई नियम नहीं होते.’’

परेश का अप्रत्याशित रूप से ऊंचा स्वर सुन कर मोहिनी को झटका सा लगा था, पर वह सरलता से हार मानने वालों में से नहीं थी.

‘‘जिसे तुम उच्छृंखलता कहते हो. हम उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नाम देते हैं और हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संसार की हर वस्तु से अधिक महत्व देते हैं,’’ मोहिनी भी उतने ही ऊंचे स्वर में बोली थी.

‘‘आवाज ऊंची करना मुझे भी आता है. पर मैं नहीं चाहता कि हम परिवार के सामने हंसी के पात्र बनें. अच्छा होगा, तुम अपनी और परिवार की गरिमा बनाए रखो. इस समय मैं जल्दी में हूं और एक आवश्यक कार्य के लिए जा रहा हूं. हम शाम को बात करेंगे,’’ परेश अपनी बात समाप्त कर बाहर निकल गया था.

‘‘परिवार… परिवार, परिवार ही सबकुछ है. मेरा अस्तित्व कुछ भी नहीं? यहां मैं एक दिन भी रही तो मेरा दम घुट जाएगा.’’

परेश के जाते ही मोहिनी इतनी जोर से चीखी थी कि निम्मी, उस की सेविका दौड़ी आई थी.

‘‘क्या हुआ मेमसाब? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, बाहर निकलो मेरे कक्ष से और बिना दरवाजा खटखटाए अंदर आने का कभी साहस मत करना,’’ मोहिनी इतनी जोर से चीखी थी कि निम्मी कक्ष से बाहर जा कर देर तक सिसकती रही थी.

मोहिनी दिनभर सोचविचार करती रहती थी कि कैसे परेश के आते ही वह उस से दोटूक बात करेगी. ताली एक हाथ से तो बजती नहीं. परेश को समझना ही होगा कि मैं घर में सजावट की वस्तु बन कर नहीं रह सकती. पर परेश के घर में घुसते ही उसे उस की मां आनंदी देवी का बुलावा आ गया था और वह अपने कक्ष में आने से पहले उन से मिलने पहुंच गया था. उधर मोहिनी अपनी बात मुंह में बंद किए देर तक कुनमुनाती रही थी.

जब तक परेश कक्ष में पहुंचा तब तक मोहिनी का पारा सातवें आकाश में पहुंच चुका था.

‘‘मिल गया समय आप को यहां आने का?’’ वह परेश को देखते ही बोली थी. उत्तर में परेश ने उसे ऐसी आग्नेय दृष्टि से देखा था कि मोहिनी सकपका गई थी.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...