‘जी, मैं तो सिर्फ चाय बना सकती हूं.’
‘जी हां, मैं तो भूल ही गया था, आप तो छोटी सी बच्ची हैं, आप को भला क्या बनाना आता होगा.’
श्वेता को हंसते देख उसे गुस्सा आ रहा था.
मैं रसोई में जा कर नमकीन, मठरी और गुलाबजामुन ले आई.
‘अरे, आप तो बहुत कुछ ले आईं,’ पुनीत शिष्टता से बोले.
‘कहां बहुत कुछ है सर, आप यह लीजिए. मैं आप के लिए पकौडि़यां तल कर लाती हूं.’
‘ नहीं भई, इतना काफी है,’ कहते हुए पुनीत अपने बारे में बताने लगे कि वे एक गरीब परिवार से हैं. पिता रिटायर्ड हैं, 2 छोटी बहनें और 1 भाई अभी पढ़ रहे हैं, जिन की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है.
हमारी योजना के मुताबिक ही वे अपने परिवार के हालात के बारे में जानबूझ कर बता रहे थे. यह वास्तविकता भी थी और कुछ बढ़ाचढ़ा कर भी बताई जा रही थी, ताकि इस कठोर धरातल की ओर बढ़ते हुए श्वेता के नाजुक पांव अपनेआप कांप उठें.
इस घटना के 2-3 दिनों बाद मैं पुनीत से मिलने स्कूल गई. इस बार हम ने स्कूल के बाहर एक स्थान और समय निश्चित कर लिया था. वे आए और मेरे हाथ में एक कागज का टुकड़ा पकड़ा कर चले गए. डर था कि कहीं श्वेता हमें न देख ले. पत्र कुछ इस प्रकार था :
आदरणीय सर,
आप मेरे पत्रों के उत्तर क्यों नहीं देते? क्या मैं आप को सुंदर नहीं लगती या अपनी गरीबी की वजह से ही आप आगे बढ़ने में डर रहे हैं? सर, जब से मुझे आप की आर्थिक स्थिति का पता चला है, आप की कर्तव्यभावना देख कर मेरे मन में आप के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ गया है. कृपया मुझे अपना लें. मैं आप का पूरापूरा साथ दूंगी. नमक के साथ सूखी रोटी खा कर भी दिन गुजार लूंगी. आप का परिवार मेरा परिवार है. हम मिलजुल कर यह जिम्मेदारी उठाएंगे.