मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कसबे देवबंद के रेलवे प्लेटफौर्म पर खड़ा हो कर देहरादून ऐक्सप्रैस का इंतजार कर रहा था. सुना था कि इस रेल में बहुत भीड़ होती है क्योंकि यह छोटेबड़े स्टेशनों पर रुकते, ठहरते देहरादून से बंबई तक आतीजाती है.

मेरे मामा का छोटा पुत्र अमित मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया था.

प्लेटफौर्म पर भारी भीड़ से मुझे परेशान देख कर उस ने राय दी, ‘‘आप किसी आरक्षित डब्बे में चढ़ जाइएगा. यदि आप सामान्य डब्बे में चढ़े तो भीतर जा कर भारी भीड़ और गरमी के मारे रास्ते में ही आप का भुरता बन जाएगा. दिल्ली पहुंचने के बाद तो आप की शक्ल ही पहचान में नहीं आएगी.’’

मैं कुछ जवाब देने ही जा रहा था कि ट्रेन आ गई. प्लेटफौर्म पर हलका सा कंपन हुआ और लोग सतर्क हो गए. शोर करता इंजन और कुछ डब्बे मेरे पास से गुजरे. अभी गाड़ी रुकी भी नहीं थी कि कुछ लोग दौड़ कर ट्रेन पर चढ़ गए.

गाड़ी के रुकने पर आरक्षित डब्बा मेरे सामने ही आया. लोग इस डब्बे की ओर भी दौड़े. अमित ने कहा, ‘‘ट्रेन यहां पर सिर्फ 2 मिनट रुकेगी. आप ज्यादा न सोचें, इसी डब्बे में चढ़ जाएं.’’

लपकती भीड़ को देख कर मैं ने सोचा, यह अवसर भी यदि निकल गया तो ट्रेन छूट जाएगी और मैं ऐसे ही बुत बना प्लेटफौर्म पर खड़ा रह जाऊंगा.

अत: मैं जल्दी से उस आरक्षित डब्बे में चढ़ गया. तभी मुझे धक्का देते हुए और लोग भी उसी डब्बे में चढ़ गए. भीड़ की वजह से मैं अमित की शक्ल दोबारा न देख सका. तभी ट्रेन चल पड़ी.

पीछे के यात्रियों ने धक्के दे कर मुझे डब्बे के भीतर पहुंचा दिया था. लेकिन भीतर भी बहुत बुरा हाल था. दरवाजे के गलियारे में एकदूसरे से सटे जितने यात्री खड़े थे उन से 3 गुना उन का सामान रखा था. बड़ीबड़ी गठरियां, सूटकेस, थैले, टिन के डब्बे, छतरी, अनाज की बोरी, दूधियों के दूध वाले डब्बे आदि खड़े यात्रियों की परेशानियां बढ़ा रहे थे.

गलियारे से दाहिने मुड़ने पर सीटों के मध्य में एक लंबा गलियारा था

जिस में भीड़ अपेक्षाकृत कुछ कम थी. मैं वहीं चला गया. वहां दोनों तरफ की खिड़कियों से हवा आ रही थी, तो घुटन कुछ कम हुई.

मैं खड़े ?हुए लोगों के मध्य से किसी तरह थोड़ाथोड़ा खिसकता हुआ डब्बे के मध्य भाग में पहुंचा. आरक्षित टिकट पर सफर करने वाले यात्रियों का मूड बेहद खराब नजर आ रहा था. नाराज होने के बावजूद भारी भीड़ देख कर वे चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई समझ रहे थे.

उन में से कइयों ने अपनी सीटें बचाने के लिए औरतों और बच्चों को पूरी सीट पर लिटा दिया था. कुछ लोग अपनी आंखों पर हाथ रख कर गहरी नींद में सोने का दिखावा करने लगे थे. कुछ होशियार लोगों ने खाने का सामान अपनी सीटों पर फैला लिया था और वक्त से पहले खाना भी शुरू कर दिया था. जहां एक परिवार के अधिक सदस्य थे, उन्होंने समूह बना कर ताश की बाजी या शतरंज बिछा ली थी.

मेरे सामने वाली सीट पर एक महिला लेटी थी. मैं और मेरे साथ खड़े लोग उस भद्र महिला को बैठने के लिए मजबूर नहीं करना चाहते थे.

लेकिन तभी वहां पर शक्ल और लिबास से मजदूरों जैसी दिखने वाली 3 औरतें आईं. उन्होंने उस महिला को उठ कर बैठने के लिए मजबूर कर दिया. एक स्त्री ने बड़ी रुखाई से कहा, ‘‘उठ कर बैठ जाओ, बहनजी. देखती नहीं हो, मेरी गोद में छोटा बच्चा है.’’

वह महिला उठ कर बैठ गई. इस उत्तम अवसर का लाभ उठा कर वे तीनों मजदूर औरतें वहां घुस कर बैठ गईं. वे तीनों आपस में ऊंचे स्वर में बातें करती जा रही थीं.

एक बोली, ‘‘अमीर लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता. गरीब लोगों को सताने सब आ जाते हैं.’’

दूसरी बोली, ‘‘मैं ने टिकट बाबू को साफसाफ बोल दिया, मेरे से ज्यादा बोलेगा तो सिर पर यह डब्बा फेंक कर मार दूंगी,’’ उस के हाथ में एक छोटा सा खाली टिन का डब्बा था.

तीसरी स्त्री को हंसी आ गई. उस ने हंसते हुए पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

दूसरी बोली, ‘‘अरे, होना क्या था… वह तो डर के मारे इस डब्बे में चढ़ा ही नहीं. किसी और डब्बे में होगा मरा कहीं का.’’

उसी समय उस का बच्चा रोने लगा. उसे चुप कराते हुए बोली, ‘‘अरे…अरे… मत रो मेरे राजा बेटे, तेरे को भूख लगी है क्या? अरे, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है.’’

फिर उस भद्र महिला से कहा, ‘‘बहनजी, तुम्हारे पास 1-2 बिस्कुट हों तो दे दो न. क्या करूं…बहनजी, इस का बाप तो गाड़ी में चढ़ा कर चला गया. एक बिस्कुट का डब्बा भी नहीं दिया.’’

वह महिला पढ़ीलिखी एवं समझदार थी. उन औरतों की फूहड़ता का बुरा माने बिना उस ने 4-5 बिस्कुट निकाल कर उस औरत को दे दिए. उस की गोद का बच्चा बिस्कुट ले कर चुप हो गया.

अभी यह दृश्य चल ही रहा था कि मुझे अचानक अपने सामने खड़े आदमी का धक्का लगा. उसे हटा कर एक लंबी सफेद दाढ़ी वाले बूढ़े मियांजी मेरे सामने प्रकट हुए और बोले, ‘‘भाईसाहब, आप ने कोई हरे रंग का सूटकेस देखा है?’’

‘‘कैसा सूटकेस?’’ मैं ने आश्चर्य के साथ उन से पूछा.

‘‘मेरे कपड़ों का सूटकेस. भाईसाहब, 2 घंटे पहले वह सूटकेस मेरे पांवों के पास ही पड़ा था. अब पता नहीं कहां चला गया,’’ उस ने दार्शनिक अंदाज में कहा.

‘‘कोई अन्य यात्री उठा कर ले गया होगा. अपने सूटकेस का आप को ध्यान रखना चाहिए था,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘जनाब, क्या उस में सोनाचांदी भरा था जो ध्यान रखता? खादी के कपड़े थे. जो भलामानस ले जाएगा, पछताएगा,’’ कहते हुए मियांजी आगे बढ़ गए.

मेरी पीठ की तरफ दूसरा ही नजारा था. पलट कर देखा, सामने महिलाओं का कूपा था लेकिन उस में 6-7 महिलाओं के अलावा 7-8 आदमी भी घुस कर बैठे हुए थे. एक बूढ़ी औरत के पास आमों का थैला रखा हुआ था. उन आमों पर कूपे के बाहर खडे़ एक सरदारजी के लड़के की निगाह लगी थी. लड़का 8-9 वर्ष का होगा. उस के पिता कूपे के बाहर खड़े हुए मन ही मन  अंदाज लगा रहे थे कि अंदर बैठने के लिए कितनी जगह निकाली जा सकती है.

अपना गणित जोड़ने के बाद सरदारजी ने बूढ़ी औरत से कहा, ‘‘माताजी, मैं आप का यह थैला ऊपर की बर्थ पर रख देता हूं. यहां पर इस बच्ची को बिठा लीजिए,’’ अपना वाक्य खत्म करते ही उन्होंने बिना प्रतीक्षा किए फौरन थैला ऊपर की बर्थ पर रख दिया और अपनी लगभग 10 वर्ष की लड़की को थैले की जगह पर बिठा दिया. इस के बाद अपने पुत्र से कहा, ‘‘काके, तू ऊपर वाली बर्थ पर चला जा.’’

काका तो यही चाहता था. उस ने जल्दी से सीट के पास लगे पायदान पर पांव रखा और उचक कर ऊपर पहुंच गया.

बूढ़ी औरत के पड़ोस में बैठा एक  नौजवान कोई फिल्मी पत्रिका पढ़ रहा था. पढ़तेपढ़ते उसे जम्हाई आने लगी तो पत्रिका को अपनी गोद में रख कर वह खिड़की से बाहर झांकने लगा.

सरदारजी ने मौके का लाभ उठाते हुए उस से कहा, ‘‘भाईसाहब, जरा अपनी पत्रिका दीजिए, इस में श्रीदेवी की तसवीर उस के नए प्रेमी के साथ छपी हुई है. अभी 1 मिनट में देख कर आप को लौटाता हूं.’’

वह नौजवान कुछ बोल नहीं सका. उस ने पत्रिका चुपचाप सरदारजी को दे दी. सरदारजी आनंदित होते हुए पत्रिका के फोटो देखने लगे.

अचानक भीड़ का एक धक्का मुझे फिर लगा. देखा, बूढ़े मियांजी पूरे डब्बे का चक्कर लगा कर लौट रहे हैं. भीड़ को धकिया कर चलना उन्हें इस उम्र में भी आता था. उन के हाथ में हरे रंग का एक सूटकेस दिखाई दे रहा था, यानी उन का खोया हुआ सामान मिल गया था.

मैं ने आश्चर्य के साथ पूछा, ‘‘मियांजी, सूटकेस कहां मिला?’’

वे बोले, ‘‘डब्बे के आखिरी कोने तक यह खिसकता हुआ चला गया था.’’

मियांजी को सूटकेस मिलने की मुझे बहुत खुशी थी, लेकिन उन का भावहीन चेहरा देख कर लग रहा था कि उन्हें सूटकेस खोने का न कोई गम था और न ही मिलने की खुशी. उन्होंने महिला कूपे के दरवाजे पर सूटकेस को उसी लापरवाही के साथ पटक दिया.

सूटकेस से ज्यादा मियांजी को नमाज की चिंता थी. वे उसी महिला कूपे में घुसे और ऊपर की बर्थ पर रखा सामान अपने हाथ से खिसकाया और थोड़ी सी जगह बना कर बर्थ के ऊपर चढ़ गए. फिर

एक गमछा बिछाया और नमाज पढ़ने लगे.

मेरे दायीं तरफ खिड़की के पास एक बर्थ पर एक स्त्री और पुरुष बैठे हुए थे, जो पतिपत्नी लग रहे थे. वे बीच में अखबार बिछा कर उस पर रखे डब्बे से धीरेधीरे खाना खा रहे थे. मेरे आसपास खड़े लोग उन की बर्थ को ललचाई दृष्टि से देख रहे थे. किंतु उन की हिम्मत नहीं हो रही थी कि बैठने के लिए सीट की मांग करें. उस दंपती ने, जो खाना कम खा रहे थे बातचीत ज्यादा कर रहे थे, अपने क्रम को लगातार बनाए रखा.

उसी समय मुजफ्फरनगर स्टेशन आ गया. गाड़ी रेंगते हुए स्टेशन पर रुकी. तभी वह व्यक्ति अपनी पत्नी से बोला, ‘‘खाने में मजा नहीं आ रहा है, इंदु. मैं पकौडि़यां ले कर आता हूं.’’

पत्नी ने चुपचाप सिर हिला दिया. पति पकौडि़यां लेने उतर गया…4 मिनट के बाद ट्रेन छूट गई.

मुझे चिंता होने लगी कि पकौडि़यां लेने गए भाईसाहब अभी तक नहीं लौटे, शायद वे मुजफ्फरनगर स्टेशन पर ही न रह गए हों. लेकिन उन की पत्नी के चेहरे पर चिंता के भाव दिखाई नहीं दे रहे थे. खाना वैसे ही फैला हुआ था. वह पति का इंतजार करती रही.

20 मिनट के बाद पति महोदय पकौडि़यां ले कर वापस आए.

‘‘बड़ी देर लगा दी,’’ पत्नी ने पूछा.‘‘हां, देर हो गई. स्टेशन पर एकदम ठंडी पकौडि़यां थीं, इसलिए मैं पिछले डब्बे में स्थित भोजनालय में चला गया था. यह लो आलूबडे़, कितने गरम हैं. मैं वहां के बैरे से आधे घंटे बाद कौफी लाने के लिए बोल आया हूं,’’ पति ने उत्साहपूर्वक कहा.

उन की सीट पर गिद्ध की निगाह रखने वाले यात्रियों को अब इस बर्थ पर बैठ पाने की आशा धूमिल होती दिखाई देने लगी थी.

उस दंपती ने फिर वही कथा दोहराई. आधे घंटे तक धीमी गति से खाना चलता रहा. इस के बाद कौफी ले कर बैरा आया तो पति ने गुर्रा कर कहा, ‘‘अरे, इतनी जल्दी तुम कौफी ले कर आ गए. तुम से कहा था कि आधे घंटे बाद आना. अभी तो हमारा खाना भी खत्म नहीं हुआ.’’बैरे ने कहा, ‘‘साहब, आप अपनी घड़ी देखिए. मैं पूरे 35 मिनट बाद कौफी ले कर आया हूं.’’

मजबूरी में कौफी स्वीकार करते हुए पति बोला

इस का कोई जवाब उन्होंने नहीं दिया. मजबूरी में कौफी स्वीकार करते हुए पति बोला, ‘‘कौफी एकदम गरम लाने को बोला था. तुम इतनी ठंडी कौफी लाए हो.’’

‘‘इस से ज्यादा गरम कौफी हमारे पास नहीं है साहब,’’ बैरे ने उत्तर दिया .

‘‘ठीक है, इसे छोड़ जाओ,’’ पति का मूड खराब हो चुका था. पत्नी पति को तसल्ली देते हुए बोली, ‘‘मेरठ में गरम कौफी मिलेगी. स्टेशन से ले लेना.’’

‘‘अच्छा,’’ पति बोला. इस के बाद दोनों खाने के डब्बे को बर्थ पर ही बिखरा हुआ छोड़ कौफी पीने लगे. कौफी पी कर उन्होंने टिफिन के साथ ही कौफी के गिलास भी रख दिए. किसी यात्री की दाल नहीं गल रही थी कि वहां बैठ सके.

महिला कूपे में सरदारजी को बैठने की जगह मिल गई थी

तभी मेरठ का प्लेटफौर्म आ गया. वह व्यक्ति फिर से गरम कौफी लेने नीचे उतर गया. मेरठ स्टेशन पर हमारे डब्बे के काफी यात्री उतर गए. लेकिन इस से कोई फर्क नहीं पड़ा, काफी तादाद में यात्री डब्बे में चढ़ भी आए.

मियांजी अपना हरा सूटकेस ले कर मेरठ उतर गए. महिला कूपे में सरदारजी को बैठने की जगह मिल गई थी. उन्होंने पड़ोस में बैठे यात्री की फिल्मी पत्रिका अभी तक लौटाने की जरूरत नहीं समझी थी. श्रीदेवी के बाद अब वे किसी और अभिनेत्री की तसवीर देखने में तल्लीन थे.

सरदारजी का काका उसी मुसकराहट और मस्ती के साथ ऊपरी बर्थ पर विराजमान था. वह पास में रखे थैले में से आम निकाल कर रस चूस रहा था. आम चूसने के बाद गुठली और छिलका उसी थैले में डाल देता था. थैले की मालकिन बूढ़ी महिला निचली बर्थ पर बैठी हुई ऊंघ रही थी. उसे कुछ पता ही नहीं था. ट्रेन  ने एक लंबी सीटी दे कर मेरठ स्टेशन छोड़ा, तब तक यात्रियों की भारी भीड़ डब्बे में घुस चुकी थी. मेरी दायीं ओर की बर्थ वाला व्यक्ति कौफी ले कर अभी तक नहीं लौटा था. उस की पत्नी इंतजार कर रही थी.

10 वर्षीया बेटी का हाथ पकड़े हुए था

तभी अधेड़ उम्र का एक आदमी अपनी पत्नी और 2 बच्चों को ले कर भीड़ को चीरता हुआ कूपे के करीब आया. शक्लसूरत से ऐसा लगता था जैसे किसी फैक्टरी में वह मेहनतमजदूरी करता हो. उस के सिर पर 2 भारी सूटकेस, हाथ में बड़ा सा थैला और बगल में एक झोलानुमा चीज दबी हुई थी. एक हाथ में वह अपनी लगभग 10 वर्षीया बेटी का हाथ पकड़े हुए था. उस की एकदम काले रंग की पत्नी के हाथ में भी ढेर सारा सामान था और अपने एक लड़के का हाथ पकड़ कर वह लगभग उसे खींच रही थी.

लोगों को धकेलता, मस्तानी चाल से चलता हुआ वह मेरे करीब आया और बोला, ‘‘भाईसाहब, 10 और 11 नंबर की बर्थ कहां होंगी?’’

मैं ने तिरछी नजरों से देखा. 11 नंबर की बर्थ वही थी जहां उस दंपती ने अपना खाना फैला कर रखा हुआ था. पति कौफी लेने गया था और अभी तक लौटा नहीं था.

10 और 11 नंबर की बर्थ के विषय में सुन कर उस महिला के कान खड़े हो गए. वह चौंकी, किंतु कुछ बोली नहीं. 11 नंबर की बर्थ पर तो उस ने व उस के पति ने कब्जा कर रखा था. और ऊपर वाली 10 नंबर की बर्थ पर बहुत सारा सामान रखा हुआ था.

मैं ने उत्सुकतावश उस व्यक्ति से पूछ लिया, ‘‘क्या आप ने मेरठ से बर्थ आरक्षित कराई है?’’

‘‘अरे नहीं साहब. हमारा आरक्षण तो हरिद्वार से चला आ रहा है. हरिद्वार में हम स्टेशन पर देरी से पहुंचे, ट्रेन छूटने वाली थी. अत: हम जल्दी में गलत डब्बे में घुस गए. इस के बाद हर स्टेशन पर भीड़ ही भीड़ मिली. बच्चों और सामान के साथ अपनी सीट तक पहुंच ही नहीं सके.’’

मुझ से बातें करते हुए वह आदमी हर बर्थ का नंबर भी पढ़ता जा  रहा था. अचानक उस की निगाह 11 नंबर बर्थ पर पड़ी. उस ने शीघ्र ही 10 नंबर भी ढूंढ़ लिया. 10 नंबर की बर्थ पर थोड़ा सा सामान खिसका कर पहले तो उस ने सिर और  हाथ का बोझ हलका किया. सूटकेस और थैला वहां रखा, फिर 11 नंबर बर्थ पर बैठी महिला की ओर देख कर बोला, ‘‘मैडम, ये 10 और 11 नंबर की सीटें हम ने हरिद्वार से आरक्षित कराई हैं.’’

उस आदमी को अनपढ़ और मूर्ख समझ कर बर्थ वाली स्त्री बोली, ‘‘ये सीटें हमारे पास देहरादून से ही हैं. इन पर हमारा आरक्षण है.’’

‘‘अगर ये सीटें आप के पास हैं तो अपना आरक्षण वाला टिकट आप देख लीजिए,’’ उस ने जेब से निकाल कर टिकट दिखाए, ‘‘सीट नंबर भी यही है और डब्बा भी यही है. इस डब्बे पर बाहर लगे आरक्षण चार्ट में मेरा और मेरी पत्नी का नाम लिखा है, मोहन कुमार और सरोज बाला.’’

‘‘टिकट मेरे पति के पास है. अभी आ कर दिखा देंगे,’’ बर्थ पर बैठी महिला बोली. इस के बाद कुछ देर तक वे लोग चुप रहे. 20-25 मिनट के बाद उस स्त्री का पति लौटा.

मोहन कुमार ने उस महिला के पति से भी अपनी वही बात दोहराई. इस के जवाब में पति ने अपना टिकट तो नहीं दिखाया, उलटे कहने लगा, ‘‘हमें टिकटचैकर ने यहां बिठाया था. हम ने उसे 40 रुपए दिए थे.’’

‘‘आप ने यदि 40 रुपए की रसीद ली है तो दिखाइए. मैं भी रेलवे में काम करता हूं. मुझे टिकटचैकर ने ही इस डब्बे में भेजा है,’’ मोहन कुमार बोला.

‘‘रसीद नहीं बनाई. अभी आ कर बनाएगा.

हम को देहरादून में टिकटचैकर ने यह बर्थ सौंपी थी,’’ पति बोला.लोग उस की बातें सुन कर साफसाफ समझ रहे थे कि वह झूठ बोल रहा है.

तभी मोहन कुमार की पत्नी बोली, ‘‘अरे, आप इतनी देर से इस के साथ क्यों अपना माथा खराब कर रहे हैं. अभी जा कर टिकटचैकर को बुला लाओ. अगर उस ने इन को यहां पर बिठाया है तो मैं शिकायत करूंगी.’’

सब को एहसास हुआ कि वह काली सी औरत समझदार और पढ़ीलिखी है. मोहन कुमार तुरंत वहां से चला गया.15-20 मिनट बाद वह टिकटचैकर को साथ ले कर लौटा. चैकर ने आ कर पति महोदय को साफसाफ बताया, ‘‘आप को यह सीट खाली करनी पड़ेगी. आप के पास इस सीट की कोई रसीद है तो दिखाइए.’’

अब पति हकलाया, ‘‘लेकिन… देहरादून में महेंद्र कुमार टिकटचैकर ने यहां बैठने के लिए कहा था.’’

‘‘मुझे नहीं पता, आप को किस ने बोला था. देहरादून से ले कर दिल्ली तक इस ट्रेन में मेरी ड्यूटी है. हमारे यहां कोई महेंद्र कुमार नहीं है. आप सीट इसी समय खाली कर दीजिए,’’ टिकटचैकर ने कहा, इस के बाद उस ने मोहन कुमार से कहा, ‘‘सीट नंबर 10 और 11 आप की हैं. आप इन पर बैठ सकते हैं.’’

इस के बाद वह वहां से चला गया.

सब कुछ ऐसे घटित हो गया था कि बर्थ पर अवैध कब्जा जमाए दंपती को बचाव का कोई रास्ता नजर नहीं आया. अब बर्थ पर बैठी स्त्री की जबान में एकदम मिठास आ गई. उस ने काले चेहरे वाली सरोज बाला से कहा, ‘‘आप यहां बैठिए, बहनजी, हमें तो सिर्फ दिल्ली तक जाना है, अभी 15 मिनट में उतर जाएंगे.’’

सरोज बाला बर्थ पर बैठ गई. हाथ का थैला उस ने बाजू में रख लिया.

उस महिला के पति ने मोहन कुमार के लिए जगह छोड़ दी, ‘‘आप बैठिए भाईसाहब.’’

मोहन कुमार खुद तो नहीं बैठा. उस ने अपनी लड़की को बिठा दिया. बर्थ वाली स्त्री ने अपना डब्बा और खाने का सामान जल्दीजल्दी समेट लिया लेकिन स्वयं सीट पर बैठी रही. बोली, ‘‘देखिए बहनजी, उस टिकटचैकर ने देहरादून में कैसे हम लोगों से 40 रुपए की ठगी कर ली . अब पता नहीं कहां गायब हो गया.’’

सरोज बाला कुछ नहीं बोली लेकिन कुछ देर बाद उस ने कहा, ‘‘अब तो 15 मिनट में दिल्ली स्टेशन आने वाला है.’’

कुछ देर चुप्पी रही. फिर वह महिला मोहन कुमार की तरफ  इशारा कर के बोली, ‘‘भाईसाहब, यदि आप बैठना चाहें तो मैं सीट छोड़ दूं?’’

‘‘नहींनहीं, आप बैठिए. 10-15 मिनट की बात है…आप का स्टेशन आने वाला  है,’’ मोहन कुमार बोला.

‘‘आप रेलवे में क्या काम करते हैं?’’ उस स्त्री के पति ने मोहन कुमार से पूछा.

‘‘मैं कलकत्ता के रेलवे शेड में सहायक फोरमैन हूं. 1 महीने की छुट्टी व रेलवे का पास ले कर घूमने निकला हूं. अब हरिद्वार से बंबई जा रहा हूं.’’

मोहन कुमार के साथ वह व्यक्ति घुलमिल कर बातें करने लगा. 15 मिनट कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला.

दिल्ली स्टेशन आ गया. गाड़ी धीमी गति से प्लेटफौम पर खड़ी हो गई.

पतिपत्नी ने अपना सामान उठाया और मोहन कुमार के परिवार से विदा लेते हुए नीचे उतर गए.मोहन कुमार ने पूरी तसल्ली के साथ अपना सामान जमा कर बच्चों व पत्नी सहित बर्थ पर कब्जा कर लिया.

इस डब्बे से अधिकांश सवारियां उतर गईं. मैं भी उतर गया. उतरने के बाद मैं सोचता रहा कि मुझे व मेरे जैसे कई लोगों को सारे रास्ते खड़ेखड़े यात्रा करनी पड़ी. लेकिन वह अनजान दंपती, मजदूर औरतें और सरदारजी अपनी कुशलता, चालाकी व शक्ति के बल पर सीटें पा गए. सच, यह कहावत गलत नहीं है, जिस की लाठी उस की भैंस.

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