मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कसबे देवबंद के रेलवे प्लेटफौर्म पर खड़ा हो कर देहरादून ऐक्सप्रैस का इंतजार कर रहा था. सुना था कि इस रेल में बहुत भीड़ होती है क्योंकि यह छोटेबड़े स्टेशनों पर रुकते, ठहरते देहरादून से बंबई तक आतीजाती है.

मेरे मामा का छोटा पुत्र अमित मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया था.

प्लेटफौर्म पर भारी भीड़ से मुझे परेशान देख कर उस ने राय दी, ‘‘आप किसी आरक्षित डब्बे में चढ़ जाइएगा. यदि आप सामान्य डब्बे में चढ़े तो भीतर जा कर भारी भीड़ और गरमी के मारे रास्ते में ही आप का भुरता बन जाएगा. दिल्ली पहुंचने के बाद तो आप की शक्ल ही पहचान में नहीं आएगी.’’

मैं कुछ जवाब देने ही जा रहा था कि ट्रेन आ गई. प्लेटफौर्म पर हलका सा कंपन हुआ और लोग सतर्क हो गए. शोर करता इंजन और कुछ डब्बे मेरे पास से गुजरे. अभी गाड़ी रुकी भी नहीं थी कि कुछ लोग दौड़ कर ट्रेन पर चढ़ गए.

गाड़ी के रुकने पर आरक्षित डब्बा मेरे सामने ही आया. लोग इस डब्बे की ओर भी दौड़े. अमित ने कहा, ‘‘ट्रेन यहां पर सिर्फ 2 मिनट रुकेगी. आप ज्यादा न सोचें, इसी डब्बे में चढ़ जाएं.’’

लपकती भीड़ को देख कर मैं ने सोचा, यह अवसर भी यदि निकल गया तो ट्रेन छूट जाएगी और मैं ऐसे ही बुत बना प्लेटफौर्म पर खड़ा रह जाऊंगा.

अत: मैं जल्दी से उस आरक्षित डब्बे में चढ़ गया. तभी मुझे धक्का देते हुए और लोग भी उसी डब्बे में चढ़ गए. भीड़ की वजह से मैं अमित की शक्ल दोबारा न देख सका. तभी ट्रेन चल पड़ी.

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