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मैं ने उन की ओर देखा कि कहीं उन के इस वाक्य में मेरे प्रति उपहास तो नहीं, लेकिन नहीं, इस वाक्य का सहीसही अर्थ ही उन के चेहरे पर लिखा हुआ था. वे आगे बोले, ‘इस उम्र में अकसर ऐसा हो जाता है. दरअसल, श्रद्धा और प्रेम का अंतर हमें इस उम्र में समझ में नहीं आता. इसलिए आप इसे गंभीर अपराध के रूप में न लें. इसीलिए मैं ने आप से ही इस बारे में बात करना ठीक समझा. आप उस की मां हैं, उस के हृदय को समझ सकती हैं.’

‘परंतु ऐसा पत्र, जी चाहता है, उसे जान से मार डालूं.’

‘नहीं, आप इस बात को श्वेता को महसूस भी न होने दें कि आप को इस पत्र के बारे में सबकुछ मालूम है. हम इस समस्या को शांति से सुलझाएंगे. आप तो जानती ही हैं कि यदि अनुकूल परिस्थितियों में यह उम्र हवा का शीतल झोंका होती है तो प्रतिकूल परिस्थितियों में गरजता हुआ तूफान बन जाती है.’

‘आप कह तो ठीक ही रहे हैं,’ मैं ने मन ही मन उन के मस्तिष्क की परिपक्वता की सराहना की.

पुनीत से की गई 15-20 मिनट की बातचीत ने मेरे मन के बोझ को आंशिक रूप से ही सही, पर कुछ कम अवश्य किया था.

‘क्या आप ने मनोविज्ञान पढ़ा है?’ मैं ने पूछा तो वे हंस पड़े, ‘जी, बाकायदा तो नहीं, परंतु हजारों मजबूरियों से घिरा हुआ मध्यवर्गीय घर है हमारा. मैं 5 भाईबहनों में सब से बड़ा हूं. सब की अपनीअपनी समस्याएं, उन के सुखदुख का मैं गवाह बना. उन का राजदार, मार्गदर्शक, सभी कुछ. मातापिता ने परिस्थितियों से शांतिपूर्वक जूझने के संस्कार दिए और इस तरह मेरा घर ही मेरे लिए अनुभवों की पाठशाला बन गया.’

उन के गजब के संतुलित स्वर ने मेरे उबलते हुए मन को मानो ठंडक प्रदान की.

‘तो योजना के मुताबिक, आप कल हमारे घर आ रहे हैं?’ मैं ने कहा और उन से विदा ली.

मैं ने औटोरिकशा के बजाय बस से ही जाना ठीक समझा. एकांत से मुझे डर लग रहा था. बस  की भीड़ में शायद मेरा दुख अधिक तीव्रता धारण न कर पाए. मगर मेरा सोचना गलत था. भीड़भरी बस में भी मैं बिलकुल अकेली थी. मेरा दुख मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल रहा था.

‘बसस्टौप से धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए मैं घर पहुंची. मुझे देखते ही श्वेता दौड़ कर आई और मेरे गले लिपट गई, ‘ओह मां, कितनी देर लगा दी. मैं अकेली बैठी कब से बोर हो रही हूं.’

‘श्वेता, छोड़ो यह बचपना,’ मैं ने अपने गले से उस की बांहें हटाते हुए कहा.

मैं ने बेरुखी से उस के हाथ झटक तो दिए थे, पर तभी पुनीत की वह बात याद आई, ‘आप अपने व्यवहार से उसे किसी तरह का आभास न होने दें कि आप उस के बारे में सबकुछ जान चुकी हूं,’ सो, मैं ने सहज स्वर में कहा, ‘बेटे, जल्दी जा कर लेट जाओ, तुम्हें अभी भी बुखार है. थोड़ी देर में अंकित भी आता होगा, वह तुम्हें जरा भी आराम नहीं करने देगा.’

श्वेता अपने कमरे में जा कर लेट गई. मैं एक पत्रिका ले कर पढ़ने बैठ गई, पर ध्यान पढ़ने में कहां था. मेरा मन तो किसी खुफिया अधिकारी की तरह श्वेता के पिछले व्यवहार की छानबीन करने लगा. वह अकसर पुनीत की प्रशंसा किया करती थी. सो, हम भी उन की योग्यता के कायल हो चुके थे, क्योंकि पिछले साल की अपेक्षा इस साल श्वेता को कैमेस्ट्री में काफी अच्छे अंक मिले थे.

जब पढ़ाने की तारीफ से आगे बढ़ कर उस ने उन के व्यक्तित्व की तारीफ शुरू की, तब भी मुझे कुछ अजीब नहीं लगा था. मैं सोचती, 14-15 वर्ष की उम्र यों भी सिर्फ योग्यता तोलने की नहीं होती. यदि वह उन्हें स्मार्ट कहा करती है  तो यह गलत नहीं. ऐसे ही शब्द तो इस उम्र में किसी के व्यक्तित्व को नापने का पैमाना होते हैं.

जब मैं उम्र के इस दौर से गुजर रही थी, मुझे भी अपनी शिक्षिका देविका कोई आसमानी परी मालूम होती थीं. मेरी मां और बाबूजी अकसर कहा करते थे, ‘इसे हमारी कोई बात समझ में ही नहीं आती, लेकिन वही बात अगर देविका कह दें तो तुरंत मान लेगी.’

यह तो बहुत बाद में समझ आया कि देविका भी औरों की तरह साधारण सी महिला थीं. मुझे महसूस होने वाला उन का पढ़ाने का जादुई ढंग उन के अपने बच्चों पर बेअसर रहा था. उन के दोनों बेटे क्लास में मुश्किल से ही पास होते थे.

बस, इसी तरह श्वेता का भी पुनीत का अतिरिक्त गुणगान करना मुझे जरा भी संदेहजनक नहीं लगा था.

दरवाजे की डोरबैल जोर से बज रही थी. शायद अंकित आ गया था. मैं ने भाग कर दरवाजा खोला.

अंकित को दूध का गिलास पकड़ा कर मैं रात के खाने की तैयारी में लग गई. श्वेता की समस्या ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया था, मगर फिर भी सोच लिया था कि जैसे भी हो, यह बात मैं इन के कानों में नहीं पड़ने दूंगी. इन का प्यार भी असीम था और गुस्सा भी. इन्हें यदि इस पत्र के बारे में पता चल जाता, तो शायद श्वेता को सूली पर चढ़ा देते.

शाम को ये लगभग 8 बजे घर पहुंचे. श्वेता और अंकित में किसी बात पर झगड़ा हो रहा था. टीवी जोरजोर से चल रहा था. इन्होंने आते ही पहले टीवी औफ किया, फिर बच्चों को जोरदार आवाज में डांटा. जब कोलाहल बंद हुआ तब मुझे खयाल आया कि मैं अपने विचारों में किस कदर खोई हुईर् थी.

‘क्या बात है, कुछ परेशान सी लग रही हो, बच्चों को इन की शैतानियों के लिए डांट नहीं रही हो?’ इन्होंने पास आ कर पूछा.

‘लीजिए, अब डांटना ही हमारे स्वस्थ होने का परिचायक हो गया. क्या मैं चुपचाप बैठी आप को अच्छी नहीं लग रही?’ मैं ने शरारत से पूछा.

‘नहीं, बिलकुल अच्छी नहीं लग रही हो. बच्चों की आवाजें, टीवी का शोर और इन सब से ऊपर तुम्हारी आवाज हो, तभी मुझे लगता है कि मैं अपने घर

आया हूं’, इन्होंने नहले पे दहला मारा. खाना खाते समय श्वेता खामोश ही रही. उस के पास सुनाने के लिए कुछ नहीं था, क्योंकि वह स्कूल जो नहीं गई थी. फिर भी एकाध बार पुनीत की तारीफ करना नहीं भूली.

योजना के मुताबिक अगले दिन पुनीत हमारे घर आए. श्वेता उन्हें देख कर आश्चर्यचकित रह गई, ‘सर, आप? यहां कैसे? आप को कैसे पता चला कि मैं यहां रहती हूं? मैं बीमार थी, क्या इसीलिए मुझे देखने आए हैं?’ उस ने सवालों की झड़ी लगा दी.

पुनीत मुसकराते हुए बोले, ‘हां भई, मैं इस तरफ किसी काम से आया था, सोचा, तुम से भी मिलता चलूं. पता तो तुम ने ही मुझे दिया था.’

‘ओह, हां. मुझे तो याद ही नहीं रहा.’ श्वेता के चेहरे पर खुशी झलक रही थी. टीवी पर फिल्म चल रही थी. श्वेता फिल्म देखते हुए हमेशा अपनेआप को भी भूल जाती थी, मगर अब उसे फिल्म से भी कोई मतलब नहीं था. उस की दुनिया तो जैसे पुनीत में ही सिमट आई थी.

‘सर, आप क्या खाएंगे?’ श्वेता इठला कर पूछ रही थी.

‘जो आप बना लाएं,’ उन्होंने शरारती स्वर में कहा.

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