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कमाल आजकल चुपचाप टैक्सी से औफिस जा रहा था. कमाल के घर से कोई आता है तो कैसे घर में एक ख़ुशी का माहौल रहता है, सब ने कितना प्यार दिया है उसे. और यह सगी बड़ी बहन जब से आई है, सिर्फ चालाकियां. हर सालदोसाल में चक्कर काट जाएंगी, घूम जाएंगी, दुनियाभर  के नाटक दिखा जाएंगी. मन ही मन कलपते रहने के सिवा कोई चारा भी तो नहीं. जाने से एक दिन पहले वरदा सामान संभालने लगी, कहने लगी, “वंशा, हम लोग अगली बार आएंगे तो शायद गोवा भी घूम आएंगे. तुम लोग चलोगे साथ?”

“मुश्किल है, दीदी.”

“अगर चलना चाहो तो अपने साथसाथ हमारे भी टिकेट्स बुक कर लेना, रहने का भी शेयर कर लेंगे तो ठीक रहेगा.”

वंशा बहन का मुंह देखती रह गई, आज बोल ही पड़ी, “दीदी, कमाल के साथ आप प्रोग्राम न ही बनाओ तो अच्छा रहेगा. वे एक मुसलिम, आप इतने धार्मिक, इतने कट्टर हिंदू. पहले ही यहां रह कर आप का इतना धर्म भ्रष्ट हो चुका होगा, उसी के घर में रह रही हैं, उसी की कार में घूम रही हैं, उसी के बिस्तर, उसी के बइतन... मैं तो दीदी हैरान हूं, आप कैसे कमाल के घर आ जाने की हिम्मत कर लेती हैं. सच कहूं तो आप को होटल में रहना चाहिए, कम से कम धर्म तो बचा रहेगा न. पैसे तो जीजू और कपडे बेच कर कमा लेंगे. आप जहां रुका करेंगी, मैं वहीं आप से मिलने आ जाया करूंगी. आप यहां कितने भी बरतन अलग कर लें, आप के जाने के बाद कुछ पता नहीं चलता किस के कौन से बरतन हैं. आप आ कर फिर पता नहीं कौन से बरतन अलग करवा लेती हैं, मुझे ही नहीं पता. सब बरतनों में तो पूरे साल नौनवेज बनता है. आप लोगों के भले के लिए ही कह रही हूं कि आप का यहां रुकना धर्म की दृष्टि से ज़रा भी ठीक नहीं  है. खाना आप को बाहर का ही खाना है, फिर यहां आप को कौन सा ऐसा आराम है जो आप अपना धर्म बिगाड़ें. मैं तो कहती हूं दीदी, आप को कमाल के घर आना ही नहीं चाहिए. चार पैसे बचाने के लिए क्यों अपना धर्म बिगाड़ती हैं.”

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