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“हां, दीदी. फ्री हो कर उन्हें फोन कर लेना, वहीं हैं.”

“तुम नहीं आईं?”

“नहीं, दीदी. सोचा, आप लोगों के लिए तब तक खाना, नाश्ता बना लूं.”

“अरे नहीं. हम बाहर से ही और्डर कर लेंगे. तुम तो जानती हो, हम लोग ज़रा धर्मकर्म का ध्यान रखते हैं. समझ रही हो न.”

वंशा के मन में एक तल्खी सी उतर गई, पूछ लिया, “हां, दीदी, अब सब समझने लगी हूं. कमाल की कार में बैठने में तो कोई परहेज नहीं है न, दीदी?”

“नहीं, नहीं, आ जाएंगे.”

“तो जो भी बना रही हूं, आप वो सब इस बार नहीं खाएंगी?”

“नहीं, तुम हमारे लिए किसी हिंदू  होटल से खाना मंगा लो.”

“ठीक है, दीदी.”

वंशा को इस हरकत पर बहुत तेज़ गुस्सा आया था, कल्कि ने कहा, “मम्मी, जो भी कहो, करो. बस, ऐसे लोगों का स्ट्रैस नहीं लेना है. रहें, जाएं, बस. छोड़ो, 10 दिनों की बात है.”

कमाल और कल्कि की इन बातों पर वंशा को बहुत प्यार आता है.  सालों से यही सब तो देख रहे हैं, कर रहे हैं. मन दुखता है. पर एकदूसरे को संभाल लेते हैं.  अब तो आदत सी हो गई है. वंशा ने गूगल पर सर्च किया. कुछ दूर पर ही स्थित एक हिंदू होटल को फोन कर के पूरा खाना और्डर कर दिया.

कमाल वरदा, पुष्कर और नेहा को घर ले आए. तीनों ने आ कर खूब बनावटी बातें कीं. शामली में वरदा का घर काफी बड़ा था, आते ही पुष्कर के घमंड ने सिर उठाया, “भाई, कैसे इतने तंग फ्लैट में रह लेते हो, दम नहीं घुटता?”

“जीजू, अभी तक तो दम नहीं घुटा. जी रहे हैं,” उस के कहने के ढंग पर कल्कि ज़ोर से हंसी, बोल पड़ी, “मम्मी, मौसी को हमारे छोटे से घर में कहीं परेशानी न हो?”

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