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31 जुलाई को सुबह से ही बारिश हो रही थी। शुक्रवार का दिन था। बौस को पहले ही मनीष ने बता दिया था कि वह आज आधे दिन की छुट्टी पर रहेगा। पूरे दिन की छुट्टी मिलना मुश्किल था। काम की अधिकता की वजह से बड़ी कठिनाई से मनीष सही समय पर रवींद्र भवन के लिए औफिस से निकल सका। लेखन की वजह से औफिस में मनीष के कई दुश्मन पैदा हो गए थे। इसलिए वह अपने लेखकीय गतिविधियों के बारे में किसी से कोई चर्चा नहीं करता था।सहकर्मियों को लगता था कि मनीष औफिस में भी लेखन करता है। नहीं तो कोई इंसान बैंक जैसे संस्थान में काम करते हुए नियमित रूप से लेखन कैसे कर सकता है?

हालांकि, मनीष को अपने लेखन को जारी रखने के लिए रोज कई कुरबानियां देनी पड़ती थीं। औफिस से लौटने के बाद 4 घंटों तक और सुबह औफिस जाने से पहले 3 घंटों तक वह नियमित रूप से अध्ययन व लेखन कार्य करता था। रविवार और छुट्टियों के दिन भी वह पढ़नेलिखने में व्यस्त रहता था। दोस्तों और रिश्तेदारों से वह कभीकभार ही मिलता था। न वह किसी के घर जाता था और न ही फोन पर किसी से गुफ्तगू करता था। कई बार छुट्टियों के दौरान भी पैतृक घर या ससुराल में वह ज्यादा समय अपने लैपटौप के साथ गुजारता था। घर में बच्चे, दोस्त, रिश्तेदार सभी उस से नाराज रहते थे।

सुधा मनीष के लैपटौप को अपनी सौतन मानती थी, क्योंकि मनीष का सब से ज्यादा वक्त लैपटौप के साथ गुजरता था। किसी तरह मनीष निर्धारित समय पर रवींद्र भवन पहुंच गया। भारी बारिश होने के बावजूद भी 100 से अधिक छात्रछात्राएं निर्धारित समय से पहले रवींद्र भवन पहुंच चुके थे, जबकि पत्रकारिता विभाग के प्रोफैसर व कर्मचारी दोपहर 1 बजे ही रवींद्र भवन पहुंच गए थे। समय पर कार्यक्रम शुरू हो गया। छात्रछात्राओं के बीच गजब का उत्साह था। जिन की बारी बाद में आने वाली थी वे भाषण की तैयारी में लगे हुए थे। चूंकि इस प्रतियोगिता में प्रोफैसर भी हिस्सा लेने वाले थे, इसलिए वे भी भाषण की तैयारी में पीछे नहीं थे। कहानी का वाचन बिना देखे करना था। निर्णायक को नंबर, प्रतियोगी के आत्मविश्वास, कंटेंट, कहानी का विश्लेषण, तार्किकता, समय का अनुपालन आदि मानकों के आधार पर दी जानी थी। सभी प्रतियोगियों को भाषण के लिए 3 मिनट का समय दिया गया था।

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