आज आधुनिक बाजार भी पुरुषवादी सोच को सिर्फ मदद तक ही सीमित कर रहे हैं. जैसे, टीवी प्रचार में अधिकतम ग्रौसरी सामानों को महिलाओं से ही लिंक किया जाता है जिस में महिलाएं जिम्मेदार की भूमिका में होती हैं और पुरुष उन के मददगार. राकेश और अनीता एकदूसरे से बेहद प्यार करते हैं. पिछले साल ही उन्होंने दिल्ली के राजा गार्डन स्थित जिला अदालत में शादी रचाई थी. ऐसा नहीं है कि उन्होंने यह शादी परिवार के खिलाफ जा कर की, बल्कि एसडीएम औफिस में शादी के समय दोनों के परिवार वाले उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे थे.

वे दोनों आधुनिक खयालात के हैं. उन का मानना है कि इस तरह की शादी कर वे परिवारों का फुजूल का खर्चा बचा सकते थे. शादी में पंडाल से ले कर पंडित की मोटी कमाई तक, मेहमानों के लेनदेन से ले कर उन की नाराजगी तक, और फिर तरहतरह के खर्चे कम होते हैं क्या? बैंडबाजा, कीर्तनभजन, घोड़ीरथ, कपड़ेलत्ते, मिठाईफल, गहने इत्यादि नाना प्रकार की लुटाई चलती है शादी में. शादी के कुछ समय बाद जब उन को मौका मिला तो उन्होंने अपने करीबी मेहमानों को बुला कर गेटटुगेदर कर खिलानेपिलाने की जिम्मेदारी भी निभा ली थी. राकेश और अनीता दोनों पढ़ेलिखे हैं. दोनों ने कालेज की पढ़ाई साथ में की. तभी उन्हें एकदूसरे से प्रेम हो गया था. कालेज से निकलने के बाद दोनों काम करने लगे थे.

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अनीता राजौरी गार्डन स्थित एक प्राइवेट अस्पताल में रिसैप्शनिस्ट है जबकि राकेश गुरुग्राम स्थित एक एमएनसी औफिस में कार्यरत है. दोनों की लाइफ अच्छे से गुजर रही है. लौकडाउन खत्म होने के बाद, दोस्त होने के नाते मु?ो, उन दोनों ने डिनर पर बुलाया. मैं उन के निवास पर गया. उन दोनों के रिश्ते में कुछ चीजें काफी प्रभावशाली थीं, जो भारत की महिलाओं की आजादी का नया अध्याय बयान कर रही थीं. जैसे, अनीता आमतौर पर मंगलसूत्र नहीं पहनती, न सिंदूर लगाती और न ही पांव में बिछिया या पायल पहनती है. यह अलग बात है कि परिवार से कोई उन के फ्लैट में आ जाए तो अनीता को सिंदूर और मंगलसूत्र कैरी करना होता है. हालांकि, ऐसा करने के लिए उस पर कोई दबाव नहीं है. वहीं, कुछ चीजें ऐसी थीं जो मु?ो चोट कर गईं. वे खाने के समय उन दोनों की होने वाली बातें थीं.

हुआ यह कि उन दोनों ने खाना बाहर से मंगवाया हुआ था. जबकि, राकेश का सोचना था कि खाना घर पर ही बनना चाहिए था. अनीता औफिस से आ कर काफी थक चुकी थी, तो वह बाहर से खाना लाने के पक्ष में थी. इस पर उन की नोक?ांक भी हुई थी. इसी मसले को ले कर दोनों मु?ा से बारीबारी शिकायत करने लगे. अनीता का कहना था, ‘हम दोनों ही बाहर जा कर काम करते हैं लेकिन ज्यादातर घर के काम की जिम्मेदारी सिर्फ मेरे ही सिर पर रहती है,’ इस के उत्तर में राकेश का कहना था, ‘मैं अनीता की हर काम में मदद करता हूं. खाना बनाते हुए जब अनीता कहती है कि प्याजटमाटर, सागसब्जी काट दो, तो मैं काट देता हूं. जब अनीता कहती है कि कपड़े धोने में मदद कर दो, तो मैं मदद करता हूं, वहीं, जब वह ज्यादा थकी रहती है तो मैं ?ाड़ूपोंछा भी मार देता हूं…’ मैं ने माहौल की संजीदगी को भांपते हुए इस मसले में कूदना ठीक नहीं सम?ा और बात हंसीठिठोली में उड़ा दी, जिस से मामला और यह बात दोनों टल गए. लेकिन घर आते हुए यह सवाल दिमाग में तैरने जरूर लगा कि इतनी उन्मुक्त सोच होने के बावजूद गलती आखिर कहां पर है? अगर यही कोई दूसरे घर का मसला होता,

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जहां घर का सारा काम महिला को ही करना पड़ता है तो उस स्थिति में मैं पुरुष को कह सकता था कि अपनी पत्नी की मदद कर दिया करो, लेकिन यहां तो राकेश अनीता की मदद भी करता है. फिर उसे क्या सु?ाव दिया जाए? फिर ध्यान से सोचा तो पता चला कि अनीता और राकेश की शिकायतों में मुख्य ?ागड़ा जिम्मेदारी और मदद का था. दरअसल, अनीता जिस काम को अपनी जिम्मेदारी या खुद पर बो?ा सम?ा रही थी, वह चाह रही थी कि इसे राकेश भी बराबर वहन करे. और राकेश जिसे मदद करना कह रहा था वह इस काम को अपना काम ही नहीं सम?ा रहा था, बल्कि वह इसे पूरी तरह अनीता का काम ही माने हुए था, जिस में अनीता की मदद करना ही वह अपनी भूमिका सम?ा रहा था. अब सवाल यह है कि जिम्मेदारी और मदद के किसी कमाऊ शादीशुदा जोड़े के बीच क्या माने हैं? जिम्मेदारी और मदद जिम्मेदारी और मदद का आपस में जुड़ाव है. जिम्मेदारी किसी काम को जिम्मे में लिए जाने से है चाहे वह किसी ने जोरजबरन दिया हो या स्वेच्छा से लिया हो. इस के अलावा एक बात यह कि, जिम्मेदारी के साथसाथ जिम्मेवारी भी आती है. जिम्मेवारी यानी जो काम आप ने लिया या आप को दिया गया हो, उस के खराब या न होने की स्थिति में सामने वाले का आप के ऊपर दोषारोपण करने का पूर्ण अधिकार होना.

वहीं, मदद का अर्थ जिम्मेदारी लेने से नहीं है और न ही जिम्मेवारी लेने से. इस में मदद करने वाला किसी भी हाल में फरिश्ता ही कहलाया जाता है. उस पर दोष नहीं मढ़े जाते. उस की हर हाल में तारीफ की जाती है. आमतौर पर जिस के हिस्से जिम्मेदारी होती है उसी की मदद की जाती है, न कि जो मदद करता है उस की किसी काम को सफल करने की जिम्मेदारी होती है. अनीता वाले मामले में राकेश ने खुद को मददगार की भूमिका में ढाल लिया है. जबकि अनीता को बाकी महिलाओं की तरह जिम्मेदार की भूमिका में. इस में संभव है कि राकेश इस बात के गुमान के साथ समाज में अपनी प्रगतिशीलता को प्रदर्शित कर वाहवाही जरूर लूटता होगा कि वह घर के काम में अपनी पत्नी की मदद करता है, लेकिन हकीकत में वह पितृसत्ता द्वारा स्थापित नियमकानूनों को आधुनिक नजरिए से जी रहा है. अनिन्दता सेनगुप्ता की रिसर्च में यही बात दिखती भी है, ‘जब महिला व पुरुष दोनों वर्किंग होते हैं तो घर के काम की मुख्य जिम्मेदारी महिला पर होती है.’ काम के बंटवारे की सोच शहरों में समृद्ध व पढ़ेलिखे आधुनिक घरों में पुरुष प्रधानता का शोर वाशिंग मशीन और ग्राइंडर की गड़गड़ाहट से भले दब जाता हो लेकिन आज भी गांव की हवाओं में यह पुरुष प्रधानता शुद्धता खुली हवाओं में सांस ले रही होती है.

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जिस में पुरुषसत्ता द्वारा स्थापित नियमों में महिला व पुरुषों को काम के आधार पर बांटा गया है. इस साल की शुरुआत में मेरा अफजलगढ़ (उत्तर प्रदेश) जाना हुआ था. जहां मेरी मुलाकात किरण नाम की 34 वर्षीया महिला से हुई. किरण के पति की मृत्यु हुए 3 साल बीत चुके हैं. घर में अब किरण के अलावा उस की सास और 2 बच्चे हैं जो दोनों लड़कियां हैं. किरण की सास की ब्लडप्रैशर की दवाइयां चलती हैं. उन की लगभग 6 बीघा जमीन है. पति के मरने के बाद से परिवार ने जमीन पर खेती करने के लिए ठेके में ठेकेदार को दे दिया है. ठेकेदार खेत की आधी उगाई या कमाई खुद रखता है और आधी किरण के सुपुर्द कर देता है. किरण बताती हैं कि 11 साल पहले जब वह शादी कर ससुराल आई थी तो उस समय उन का पति किसानी का काम करता था.

उस के एक साल बाद गांव में आंगनबाड़ी के लिए एक महिला टीचर की जरूरत थी. उन्होंने 12वीं तक की अपनी पढ़ाई पूरी की थी तो सोचा कि क्यों न वे इस के लिए अपना नामांकन करवा लें. लेकिन घर वालों ने उसे पढ़ाने की इजाजत नहीं दी. किरण का कहना था कि उन की सास और ससुर नहीं चाहते थे कि पति खेतों में ट्रैक्टर चलाए, मेहनतमजदूरी करे और पत्नी मैडम बन कर पढ़ाने जाए. आज भी ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाओं का घरेलू काम के इर्दगिर्द ही जीवनयापन होता है. अधिक से अधिक वे दोचार मवेशी पाल कर दुग्ध उत्पादों में संबंधित श्रम लगाती हैं, लेकिन आज भी समाज के एक बड़े हिस्से में इसे महिलाओं का बाजार अनुकूल उत्पादित काम सम?ा ही नहीं गया है. एक स्टडी कहती है कि अफ्रीका और एशिया में लगभग 60 प्रतिशत लेबर फोर्स महिलाओं की होती है लेकिन इस के बावजूद पुरुषप्रधान समाज में उन्हें किसान का दर्जा प्राप्त नहीं होता. ग्रामीण इलाकों में खेतों की रोपाई, बटाई, सिंचाई इत्यादि का काम महिलाएं करती दिख जाती हैं.

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लेकिन पुरुषप्रधान समाज में जिस के हाथ से ट्रैक्टर चलता दिखता है वही किसान सम?ा जाता है. धर्म के तानेबाने भारत में एक शब्द काफी सुना व बोला जाता है, ‘कुल्टा’. सासबहू धारावाहिकों में इस शब्द का अत्यधिक इस्तेमाल भी होते हुए देखा गया है. जिन में सास अपनी बहू को गाली के तौर पर इस शब्द को कहती है. आमतौर पर यह गाली काफी लंबे समय से महिलाओं के लिए उपयोग की जाती रही है. इस का शाब्दिक अर्थ होता है, ‘कुल को पालने वाली औरत.’ पुराने समय में ब्राह्मण समाज में यह गाली उन महिलाओं के लिए कही जाती थी जो घरों से बाहर निकल खेतों में काम करने जाया करती थीं. इसे कह कर वे न सिर्फ उन महिलाओं का तिरस्कार करते थे बल्कि इस के साथ अपने घरों की महिलाओं को भी यह संदेश देते थे कि ऐसी महिलाएं खराब होती हैं, व्यभिचारी होती हैं और महिला का काम घर के भीतर के कामों को करने का है. आज भी उन्हें यही डर दिखाया जाता है कि सीता ने जरा सी पुरुष की बनाई लक्ष्मणरेखा क्या लांघी पूरी रामायण ही घट गई.

जबकि यह छिपाया जाता है कि मात्र अपने विवाह का प्रस्ताव रखने के चलते लक्ष्मण ने रावण की बहन सूर्पणखा की नाक काट दी थी, जहां से टकराव पैदा हुआ. सीता का आधार बना कर यह समाज एक आदर्श स्त्री को हमेशा रेखांकित भी करते आया है, जिस में महिला को समयसमय पर अपनी पवित्रता का सुबूत देने के लिए बाध्य किया जाता है. लक्षमणरेखा को औरत की मर्यादा और घर में रहने की सीमा से ही जोड़ा जाता है. मनुस्मृति में बाकायदा एक महिला को किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, इसे दर्शाया गया है. उस में हंसने, बोलने, रहनसहन सब में नियमावली निर्धारित की गई है. लगभग सभी धार्मिक ग्रंथों में महिलाओं को स्वतंत्र न किए जाने के ऊलजलूल तर्क दिए गए हैं. उन्हें पुरुषों के अधीन रहने पर जोर दिया गया है. उन्हें स्वेच्छा से कोई काम करने पर रोक लगाई गई है. महिला को बताया गया है कि उसे बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रहना है.

पुरुषवादी ऐंठन देश में हजारों सालों से चली आ रही कुरीतियों ने आज आधुनिक समाज के युवाओं के विचारों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है. लेकिन इस के साथ एक मसला यह भी कि इतिहास में जैसेजैसे उत्पादन क्षेत्र ने पुरुष के हाथ बाजार को नियंत्रित करने की ताकत सौंपी वैसेवैसे काम की कीमतें तय हुईं. जैसे, महिलाओं, जो घर के भीतर रह कर घर का सारा काम करती रहीं, के काम की बाजार कीमत शून्य बताई गई, बल्कि वह उन के कर्तव्य में जोड़ दी गई. वहीं, पुरुषों ने बाहर चाह

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