‘मनुस्मृति’ के मुताबिक, समाज में वर्ण व्यवस्था जन्म के हिसाब से तय की जाती थी. ब्राह्मण को मुख, क्षत्रिय को हाथ, वैश्य को जांघ व शूद्र को पैर माना गया. पढ़ेलिखे व कामचोर पैसे वालों ने इस में चालाकी दिखाई. उन्होंने अपनी सहूलियत के काम छांट कर खुद कब्जा लिया. पैसे, ताकत व हक पर काबिज हो कर खुद ही अगड़े बन गए और कमरतोड़ मेहनत, खेतीबारी, मजदूरी, सेवा, साफसफाई व जानवरों की खाल उतारने जैसे काम गरीब, जाहिल, अनपढ़ व कमजोरों के जिम्मे तय कर दिए.

इस से समाज का कमजोर तबका पीछे व नीचे हो गया. अगड़े फायदे में रहे. ताकतवर की हैवानियत व मतलबपरस्ती के चलते समाज में कमजोरों पर हमेशा जुल्म होते रहे हैं.

कामचोरी को तरजीह

आमतौर पर कहा जाता है कि अगर पेट भरना है, तो काम करो. मेहनत कर के खाओ, लेकिन अफसोस की बात है कि मेहनत कर के खाने की बात अगड़े व असरदार लोग सिर्फ दूसरों के लिए करते हैं. मेहनत के सभी काम खासकर नीची जातियों के कंधों पर हैं. सारी नसीहतें कमजोरों पर ही लागू होती हैं. अगड़े और दाढ़ीचोटी वाले बिना करेधरे ही खीरपूरी खाते रहे हैं. अब भी वे अपनी खिदमत पिछड़ों, दलितों व कमजोरों से ही कराते हैं.

दिमागी फुतूर व झूठी शान दिखाने के लिए कम से कम काम करने वालों को समाज में बड़ा व ऊंचा और काम करने वालों को छोटा व नीचा समझा जाता है, इसलिए निकम्मों की फौज बरकरार है. हमारे समाज का ढांचा सदियों से ऐसा ही बेढब रहा है कि जो लोग कुछ नहीं करते, उन्हें ब्राह्मण बता कर सिरमाथे पर बिठाया गया. सब से ऊंचा दर्जा दिया गया. पंडेपुजारी जीने से मरने तक के कर्मकांड कराने में भोले भक्तों से दानदक्षिणा और चढ़ावा लेते रहे हैं, इसलिए उन के मेहनत करने का तो सवाल ही नहीं उठता.

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