कलियुग में धर्म ही तारता है, ऐसा कहा जाता है. जीवन, मृत्यु और सांसारिक चक्र व छलप्रपंचों में फंसे लोग तरने के लिए मंदिरों व बाबाओं की शरण में जा कर अपनी परेशानियों का हल ढूंढ़ते हैं. तरने की यह आदिम इच्छा धर्म की ही देन है, इसलिए तारने के लिए लाखों की तादाद में साधुसंत मौजूद हैं. ये बाबा लोग तारने और पापमुक्ति के नाम पर तगड़ी फीस लेते हैं, जिस की दुकान ज्यादा चल जाती है उस के भाव बढ़ जाते हैं. देखते ही देखते एक वक्त ऐसा भी आता है कि बड़े हो गए ब्रैंडेड बाबा के अनुयायियों की संख्या करोड़ों में और कमाई खरबों में पहुंच जाती है.

ऐसे धर्मगुरुओं की पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में होता है. चढ़ावे की वित्तीय व्यवस्था और प्रवाह के लिए ये जगहजगह आश्रम और ट्रस्ट खोल लेते हैं, जिन में उन के विश्वसनीय लोग पाईपाई का हिसाब रखते हैं और गुरु को बताते रहते हैं कि इस तिमाही में कितना नफा हुआ और कुल तामझाम में कितना पैसा खर्च हुआ. इन के नजदीकियों की जिंदगी भी बगैर कुछ किएधरे ऐशोआराम से गुजरती है. इन बाबाओं और संतों की शाही जिंदगी देख अकसर बेरोजगार युवा आह भरते नजर आते हैं कि पढ़ाईलिखाई में वक्त और पैसा जाया करने से तो बेहतर था कि बाबा बन कर ऐश और मौज की जिंदगी गुजारते. पर इन युवाओं को यह अंदाजा या एहसास नहीं होता कि ब्रैंडेड बाबा बनने के लिए सिर्फ भगवा कपड़े पहन कर कथा, प्रवचन, यज्ञ व हवन करना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि और भी बहुतकुछ करना पड़ता है, तब कहीं जा कर मोक्ष और मुक्तिकी दुकान चमकती है.

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