सावन की रिमझिम फुहारों के साथ ही तीजत्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाता है. नएनए पकवानों की खुशबू और मेहंदी के चटक रंग हर ओर बिखरने लगते हैं. यह मौसम ही इतना सुहावना होता है कि कोई इन रंगों के जादू से बच ही नहीं सकता.
मझली चाची ढेर सारे पकवानों से टोकरियां सजाने में व्यस्त हैं. आखिर हों भी क्यों न, अभी कुछ माह पहले ही तो बिटिया की शादी की है. पहले सावन पर बिटिया की ससुराल जाना है बिटिया को लिवाने, कोई कमी न रह जाए. एक सरसरी नजर डाली उन्होंने सारे साजोसामान पर. अरे, यह क्या, वे इतनी जरूरी बात भला कैसे भूल गईं. उन्होंने शीला को आवाज लगाई, ‘‘अरी शीला, जरा इधर तो आना.’’
कामवाली बाई शीला सफाई करना छोड़ कर मझली चाची के पास आ गई. ‘‘हां, चाची, कहिए, क्या काम है?’’
‘‘शीला, मैं ने तुझ से मेहंदी के कोन मंगाए थे, तू लाई या नहीं?’’
‘‘हांहां चाची, ले आई हूं, ये देखो,’’ कहती हुई शीला मेहंदी के कोन वाला डब्बा आंगन से उठा लाई. ‘‘यह लो चाची,’’ कहते हुए उस ने मझली चाची की ओर वह डब्बा बढ़ाया.
मझली चाची घबरा कर यों पीछे हट गईं जैसे उन्हें जोर का करंट लगा हो. मेहंदी का डब्बा गिरतेगिरते बचा. ‘‘क्या हो गया, चाची?’’ हैरान हो कर शीला ने उन की ओर देखा. चाची की आंखें भर आई थीं. ‘‘शीला, मैं एक विधवा हो कर मेहंदी को भला कैसे हाथ लगाऊं. तुझे पता नहीं क्या, यह सामान मेरी बेटी की ससुराल जाना है. कुछ ऊंचनीच हो गई तो?’’
‘‘चाची, तुम भी, सारे साजोसामान खुद ही जुटाओगी पर सुहाग का सामान हो, तो हाथ भी नहीं लगाओगी. यह भी कोई बात हुई?’’