अगर कोई भी पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता से सोचेगा, तो आखिरकार इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि दृष्टिहीनों को छोडकर सभी पुरुषों की नजर महिलाओं के नाजुक अंगों को टटोलती रहती हैं. यह पुरुष का प्राकृतिक स्वभाव है, इसे अन्यथा नहीं लिया जा सकता और न ही मात्र स्त्री अंगों को देखने भर से उसे दोषी ठहराया जा सकता है. पुरुष दोषी तभी ठहराया जा सकता है जब वह स्त्री अंगों को हाथ से छुए, उसे हासिल करने क लिए शारीरिक ताकत का इस्तेमाल करे या फिर किसी तरह का डर दिखाये या कि फिर लालच देकर अपनी उद्दात इच्छा पूरी करे.

दिक्कत तो यह मान लेना है कि पुरुष स्वभाव से ही लमपट होता है, वासना के लाल लाल डोरे उसकी आंखों में तैरते ही रहते हैं और वह सिर्फ और सिर्फ औरत के शरीर को हासिल कर लेना चाहता है. कोई महिला पत्रकार अगर मुद्दत बाद विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर पर यह आरोप लगा रही है कि कभी उन्होंने उसके साथ बड़ी बेहूदी बदसलूकी की थी जिसे ज्यों का त्यों लिखना ही सिर्फ वयस्कों के लिए वाली श्रेणी में आता हो या नीले पीले साहित्य की याद दिलाता हो तो इसे आप कैसे देखेंगे. मी टू नाम के आंदोलन से उपजा आत्मविश्वास या कुछ और?

अकबर कभी वाकई पत्रकारिता की दुनिया के जिल्लेलाही थे, उनके इर्द गिर्द खूबसूरत लड़कियां तितलियों की तरह मंडराती थीं, सत्ता के गलियारों में प्रशासनिक हलकों में एमजे अकबर के नाम का सिक्का चलता था. पत्रकारिता में कैरियर बनाने की ख्वाहिशमंद महत्वाकांक्षी युवतियां उनकी नजदीकियां पाने बेताब रहती थीं, ऐसे में यह भी नामुमकिन नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने वह सब कुछ नहीं किया होगा जिसके आरोप उन पर लग रहे हैं.

क्या उन्होंने गलत किया था और उससे भी ज्यादा गंभीर सवाल या खतरा अब यह मंडरा रहा है कि क्या सालों बाद इस तरह के आरोप स्वीकार्य होने चाहिए. दो दिन पहले ही मेनका गांधी ने एक बयान में इस बात की वकालत की थी कि हां दुष्कर्म या इस प्रवृति के अपराधों की शिकायत की कोई समय सीमा तय नहीं होना चाहिए, यानि पीड़िता 20-30 साल बाद भी शिकायत करे तो कथित आरोपी पुरुष पर कारवाई होनी चाहिए.

यहां एक दिलचस्प मामला फिल्म अभिनेता जितेंद्र का लिया जा सकता है जिन पर इस साल फरवरी के दूसरे हफ्ते में उनकी फुफेरी बहन ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था. यह बात पीड़िता को 47 साल बाद याद क्यों आई कि हिमाचल प्रदेश में एक फिल्म की शूटिंग के वक्त जितेंद्र ने जो किया था उसकी सजा उन्हें अब  मिलनी ही चाहिए. दो बड़े और नामी बच्चों के पिता जितेंद्र ने इस आरोप को गलत बताया था.

यह मामला दिलचस्प इस लिहाज से भी था कि जितेंद्र की बहन ने अदालत में यह जज्बाती दलील दी थी कि वह यह शिकायत वह अपने मां बाप की मौत के बाद कर रही है, उनके जीतेजी करती तो उन्हें इससे सदमा पहुंचता. जवाब में जितेंद्र के वकील रिजवान सिद्दीकी ने आरोप को बेबुनियाद बताते हुये लिमिटेशन एक्ट 1963 का हवाला दिया था जिसके तहत इस तरह की कोई भी शिकायत तीन साल के भीतर करनी होती है, जिससे शिकायत की ठीक तरह से जांच हो सके. अपने फैसले में हिमाचल हाइकोर्ट ने इस मामले में आगे की कारवाई और जांच पर रोक लगाने का फैसला दिया था.

इस पीड़िता के पास कोई सबूत अपने आरोप के बाबत नहीं थे, ठीक वैसे ही जैसे अकबर पीड़ित युवतियों या महिलाओं के पास नहीं है. इसी कड़ी में अभिनेता आलोक नाथ का भी नाम उल्लेखनीय है जिन पर आरोप क्या लगा कि वे एकदम से इंसाफ का तराजू फिल्म के राज बब्बर लोगों को नजर आने लगे.

प्रसंगवश बात जहां तक एमजे अकबर की है तो उनसे बेहतर कोई नहीं समझ पा रहा होगा कि दरअसल में मुद्दत बाद मीडिया समूहों की व्यापारिक और वैचारिक लड़ाई में वे दो पाटों के बीच पीसे जा रहे हैं. एक तरफ भगवा छाप मीडिया उन्हें निर्दोष साबित करने की कोशिश कर रहा है तो दूसरी तरफ वामपंथी मीडिया चिल्ला रहा है कि इन कथित आरोपों के चलते उन्हें इस अहम संवैधानिक पद पर विराजे रहने का कोई हक नहीं. नरेंद्र मोदी को तुरंत उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए. बार बार विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और कानून मंत्री रविशंकर को छोटे पर्दे पर दिखाया जाकर यह सवाल पूछा जा रहा है कि वे चुप क्यों हैं.

लग ऐसा रहा है कि द्रौपदियों का चीर हरण हो रहा है और विदुर और भीष्म सरीखे ज्ञानी महात्मा भी धृतराष्ट्र की तरह अंधे होकर बैठे हैं कि कृष्ण गुजरात की बनी साड़ी लेकर आएगा और इस लज्जाजनक कांड का पटाक्षेप कर देगा जो इत्तफाक से नवरात्रि के पहले दिन ही सुर्खियों में आ गया. अकबर और आलोक दुर्योधन और दुशासन हैं इन्हें सजा मिलना ही चाहिए.

मुद्दे की बात से सब कन्नी काटते नजर आ रहे हैं, जिस पर बहुत जल्द कानूनी बहस छिड़ना तय दिख रहा है कि क्या कथित छेड़छाड़, अश्लील हरकतों और बलात्कार जिन्हें अंग्रेजी के एक शब्द हेरेसमेंट में पिरो दिया गया है पर सालों बाद पुरुष को दोषी ठहराया या माना जाना चाहिए, वह भी उस सूरत में जब पीड़िता अपने आरोप साबित नहीं कर पा रही हो. क्या स्त्री इतनी पवित्र रह गई है या पहले कभी थी कि उसके कहने भर से पुरुष गुनहगार करार दे दिया जाये.

जवाब साफ है कि नहीं, यह समूची पुरुष जाति के साथ ज्यादती होगी, महिला को अपने लगाए आरोप तो साबित करने ही होंगे. यहां एक दिलचस्प और वास्तविक उदाहरण भोपाल के एक कानवेंट स्कूल का लेना प्रासंगिक होगा. 2 महीने पहले एक महिला ने रिपोर्ट लिखाई कि स्कूल के फलां फादर ने उसके साथ ज्यादती की. मामला हिन्दू महिला और ईसाई पुरुष का था, इसलिए माहौल गरमाया पर तीसरे ही दिन ठंडा भी पड़ गया क्योंकि स्कूल में उस नाम का कोई फादर या प्रिंसिपल था ही नहीं जिस पर यह आरोप लगाया गया था. बाद में यह पीड़िता फरार हो गई और शाहजहानाबाद थाने के पुलिस वाले उस वक्त सकते में रह गए जब महिला का नाम पता और मोबाइल नंबर भी फर्जी निकले.

यानि पीड़िता के होम वर्क में ही कमी थी, नहीं तो अगर वाकई कोई उस नाम का फादर या प्रिंसिपल होता तो बेचारा जेल में बैठा जमानत की राह देखता, अपने उस कुकर्म को कोस रहा होता जो वास्तव में उसने किया ही नहीं था. ऐसे उदाहरण रोज हर कहीं देखने में आ जाते हैं.

लेकिन इससे कड़वा सच उन उदाहरणों का भी है जो देखने में ही नहीं आ पाते. हर कहीं कोई पुरुष महिला से मौके का फायदा उठाकर ज्यादती कर रहा होता है, अपनी कुत्सित मंशा को अंजाम दे रहा होता है और महिला बेचारी लोकलाज और इज्जत के डर से खामोश रहते सब कुछ सहती रहती है. कई बार उसकी कोई मजबूरी भी उसे खामोशी ओढ़े रहने मजबूर करती है.

सवाल जो एमजे अकबर और आलोकनाथ जैसे मामलों में जबाब का मुंह ताक रहा है कि ऐसा  क्या होना चाहिए जिससे न्याय भी हो और अन्याय भी न होने पाये. रही बात पुरुष की तो वह तो सार्वजनिक स्थानों में दफ्तरों में और जहां भी उसे मौका मिलेगा वहां स्त्री और उसके अंगों खासतौर से उभारों को देखेगा ही. जरूरी नहीं कि उसकी मंशा कुछ गलत करने की ही हो पर  उसका यह स्वभाव नहीं बदला जा सकता जो प्रकृति ने उसे दिया है.

हैरानी नहीं होनी चाहिए कि अब ऐसे मामलों की बाढ़ आने लगे, जिनमें कोई 40-50 साल की महिला विलाप करती हुई सोशल मीडिया या फिर थाने में ही नजर आए कि आज से कोई 20–25 साल पहले उसके बौस ने या पड़ोसी ने या फिर फलां नजदीकी रिश्तेदार ने उसके साथ ज्यादती की थी. अगर महिला को कोई पुरानी खुन्नस निकालना होगी तो वह झूठा आरोप भी मढ़ने से चूकेगी नहीं. मुमकिन है इसकी पटकथा भी उसका पुरुष संरक्षक या साथी ही लिखे, फिर तो इज्जतदार और मालदार मर्दों की खैर नहीं रहेगी.

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