बेहद सहजता और सरलता से वरिष्ठ मराठी साहित्यकार 77 वर्षीय यशवंत मनोहर ने बातचीत में ये शब्द इस प्रतिनिधि से कहे . उनकी आवाज में न तो उत्तेजना थी न कोई पूर्वाग्रह लग रहा था और न ही सरस्वती पूजकों के प्रति किसी तरह का आक्रोश झलक रहा था . फिर उन्होंने सरस्वती को शोषकों को देवी बताते क्यों एक अहम पुरुस्कार को विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया ये और ऐसे कई सवाल कतई नए नहीं हैं और न ही नागपुर की इस साधारण सी दिखने बाली असाधारण घटना को सरसरी तौर से देखने के बाद ख़ारिज करने की इजाजत देते .

इस वाकिये को दक्षिणपंथ और वामपंथ की वैचारिक लड़ाई से जोडकर देखा जाना भी कुछ विश्लेषकों की जल्दबाजी ही समझी जायेगी क्योंकि यशवंत खुद को पूरे फख्र से सिर्फ आम्बेडकरबादी घोषित करते हैं और खुलेतौर पर मनुवाद पर प्रहार अपनी रचनाओं में करते हैं  . यही वह बिंदु है जहाँ से हजारों सालों और फिर आजादी के बाद भी ज्ञान और शिक्षा पर सवर्णों के दबदबे पर प्रहार होना शुरू हो गए थे . तब सवर्ण के माने सिर्फ ब्राम्हण हुआ करते थे और दलित के माने भंगी चमार ,डोम और महार जैसे जाति सूचक शब्द जो अपमान के पर्याय आज भी होते हैं .

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लेकिन अब दोनों का दायरा बढ़ रहा है और एक हद तक अर्थ प्रधान भी होता जा रहा है .पैसे बाले शूद्र यानी दलित को इस शर्त के साथ मुख्यधारा में दाखिला मिल जाता है कि जब तक  वह पूजा पाठ करेगा और पंडों व ब्राम्हणों को धर्म के निर्देशानुसार दान दक्षिणा देता रहेगा तब तक  उसकी जाति पर अगर कोई अहम वजह न हो ऊँगली नहीं उठाई जाएगी और न ही उसे जलील  किया जाएगा . लेकिन सभी शिक्षित दलित इस शर्त पर राजी नहीं हैं और जो नहीं हैं उन्होंने अतीत को याद रखा है कि जब तक धर्म धर्मग्रन्थ और देवी देवताओं का पूजा पाठ है तब तक दलित उद्धार एक सपना ही रहेगा . मुट्ठी भर दलितों के कथित भले को समूचे दलित समुदाय का उद्धार नहीं माना जा सकता .

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