कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण और लगातार हो रही मौतों के बीच दुनिया उन डाक्टर्स, रिसर्चर्स और वैज्ञानिकों की ओर बड़ी उम्मीदों से ताक रही है जो इस का इलाज ढूंढ़ने की कोशिशों में रातदिन एक किए हुए हैं. इस वक्त दुनिया को इंतजार है तो, बस, कोरोना के वैक्सीन का, जो मौत के ब्लैकहोल में तेजी से जाती जिंदगियों को बचा ले. सब की निगाहें इसी ओर लगी हैं कि कब कोविड-19 को खत्म करने वाली वैक्सीन बनेगी और स्थितियां सामान्य होने की ओर लौटेंगीं.
दुनिया के लगभग सभी देश कोरोना
वैक्सीन बनाने की जद्दोजेहद में लगे हुए हैं. दुनियाभर में 200 से ज्यादा संस्थानों में वैक्सीन पर शोध जारी है, जिन में से 21 से ज्यादा वैक्सीन क्लीनिकल ट्रायल की स्टेज में हैं. भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, चीन और रूस समेत कई देशों को वैक्सीन के ट्रायल में सफलता मिलती दिख भी रही है. इस बीच, ब्रिटेन की औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और फार्मा कंपनी एस्ट्राजेनेका से बड़ी खबर आई है. वहां बनाई गई वैक्सीन अपने पहले और दूसरे फेज के ह्यूमन ट्रायल में काफी असरकारक साबित हुई है और अब वहां तीसरे फेज का ट्रायल शुरू हो गया है.
औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका फार्मा कंपनी कोरोना वैक्सीन के लिए जारी अपने परीक्षणों में दुनिया की तमाम रिसर्च और प्रयोगों में आगे चल रही हैं. बता दें कि औक्सफोर्ड ने वैश्विक स्तर पर वैक्सीन के उत्पादन के लिए दवा निर्माता कंपनी एस्ट्राजेनेका के साथ सा झेदारी की है और कंपनी पहले राउंड में ही 2 अरब खुराक बनाने की प्रतिबद्धता जता चुकी है.
गौरतलब है कि औक्सफोर्ड ने कोरोना वायरस की वैक्सीन ष्टद्ध्नस्रहृ3१ ठ्ठष्टशङ्क-१९ का मानव परीक्षण 4 महीने पहले शुरू किया था. ब्रिटिश शोधकर्ताओं ने पहली बार अप्रैल में एक हजार लोगों पर वैक्सीन का परीक्षण शुरू किया था. डाक्टर्स का कहना है कि जिन लोगों को यह वैक्सीन लगाई गई थी, उन में सुरक्षात्मक प्रतिरोधक प्रतिक्रिया के उत्पन्न होने से वैक्सीन की सफलता की दिशा में बड़ी उम्मीद उभरी है.
ये भी पढ़ें- लॉकडाउन से ऊब रहे हैं बच्चे
अच्छे परिणाम की उम्मीद
वैक्सीन के पहले और दूसरे चरण के ह्यूमन ट्रायल में सफल होने की खबर जुलाई के तीसरे सोमवार को आई, जिस से चिकित्सीय जगत में खासा उत्साह है. अब इस के तीसरे चरण में बड़े पैमाने पर ह्यूमन ट्रायल की तैयारी है, जिस में ब्रिटेन के अलावा ब्राजील, अमेरिका और भारत में भी ह्यूमन ट्रायल शुरू किया जाएगा.
मैडिकल जर्नल ‘लांसेट’ में औक्सफोर्ड में बनने वाली कोरोना वैक्सीन के पहले और दूसरे ट्रायल के परिणाम प्रकाशित किए गए हैं. इस में कहा गया है कि वैक्सीन के ट्रायल के दौरान अच्छी प्रतिक्रिया मिली है और यह किसी भी गंभीर साइड इफैक्ट का संकेत नहीं दे रही है. वैक्सीन से संक्रमित व्यक्ति के शरीर में एंटीबौडीज और टी-सैल्स बन रहे हैं, जो कोरोना वायरस से लड़ने में कारगर हैं.
मैडिकल जर्नल के अनुसार, अप्रैल और मई में ब्रिटेन के 5 अस्पतालों में 18 से 55 वर्ष की आयु के एक हजार स्वस्थ वयस्कों को कोरोना वायरस से संक्रमित करने के बाद वैक्सीन की खुराक दी गई थी. वैक्सीन की वजह से कोई गंभीर साइड इफैक्ट इन वौलंटियर्स में नजर नहीं आया और इस की 2 खुराक प्राप्त करने वाले लोगों में अच्छी प्रतिक्रिया देखने को मिली. उन के शरीर में इस रोग से लड़ने के लिए एंटीबौडी और टी-सैल्स का निर्माण होने लगा.
ये भी पढ़ें- महेंद्र सिंह धौनी के बाद क्या होगा भारतीय क्रिकेट का
लांसेट जर्नल लिखता है कि वैज्ञानिकों ने वैक्सीन के ट्रायल में पाया कि वैक्सीन ने लोगों में दोहरी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न की है. इस तरह के शुरुआती परीक्षणों को आमतौर पर केवल सुरक्षा का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है, लेकिन इस मामले में विशेषज्ञ यह भी देखना चाह रहे थे कि इस की किस तरह की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया होगी.
औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में जेनर इंस्टिट्यूट के निदेशक डा. एड्रियन हिल के मुताबिक, ‘‘हम लगभग हर वौलंटियर में अच्छी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देख रहे हैं. यह वैक्सीन प्रतिरक्षा प्रणाली के दोनों पक्षों को मजबूत कर देती है.’’
डा. एड्रियन हिल लिखते हैं कि इस वैक्सीन से शरीर की टी-कोशिकाओं में एक प्रतिक्रिया होती है जो कोरोना वायरस से लड़ने में मदद करती है. देखा गया है कि वैक्सीन लगाने के बाद रोगी के शरीर में एंटीबौडी और सफेद रक्त कणिकाओं (डब्लूबीसी) का निर्माण हुआ जो कोरोना वायरस से लड़ने में प्रभावी साबित हुई हैं. वैक्सीन ट्रायल के ये परिणाम काफी आशाजनक हैं.
वैक्सीन की प्रभावशीलता का निर्धारण वैज्ञानिक कितनी जल्दी कर पाते हैं, यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि वहां कितना अधिक परीक्षण होता है. डा. हिल ने अनुमान लगाया है कि उन के पास यह सुनिश्चित करने के लिए इस वर्ष के अंत तक पर्याप्त डाटा हो सकता है कि क्या वैक्सीन को सामूहिक टीकाकरण अभियानों के लिए अपनाया जाना चाहिए. डा. हिल का कहना है कि औक्सफोर्ड की वैक्सीन बीमारी और उस के प्रसार को कम करने के लिए बनाई गई है.
ये भी पढ़ें- पकङौआ शादी: ब्याही महिलाओं की दर्दभरी दास्तान
उल्लेखनीय है कि औक्सफोर्ड में बनाई जा रही कोरोना वैक्सीन को चिंपांजियों में सामान्य सर्दीजुकाम का कारण बनने वाले वायरस में जेनेटिक बदलाव ला कर तैयार किया गया है. इसे वैज्ञानिक भाषा में वायरल वैक्टर कहते हैं. इस में इस तरह बदलाव लाया गया है कि यह लोगों को संक्रमित न कर सके और कोरोना वायरस से लड़ने की क्षमता पैदा कर सके.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जौनसन ने इस वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के उत्साहजनक परिणामों को देखते हुए वैज्ञानिकों को बधाई दी है और कहा है कि यह बहुत सुखद व सकारात्मक समाचार है. बकौल बोरिस, ‘‘औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के हमारे कुशल वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को बहुत बधाई. हम अभी अंतिम पड़ाव पर नहीं पहुंचे हैं और आगे के ट्रायल बहुत अहम होंगे. लेकिन, यह सफलता सही दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है.’’
भारत से ब्रिटेन का करार
ब्रिटेन की औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा तैयार की जा रही कोरोना वैक्सीन के 2 चरणों के ट्रायल कामयाब होने के बाद ही वहां की एस्ट्राजेनेका फार्मा कंपनी ने इस के उत्पादन की तैयारी शुरू कर दी है. तीसरे चरण के सफल होते ही वैक्सीन की बड़ी खेप बाजार में लाने की तैयारी है. औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और दवा कंपनी एस्ट्राजेनेका ने 60 से ज्यादा देशों के अलावा भारत से भी वैक्सीन के निर्माण व आपूर्ति के लिए करार किया है.
भारत में पुणे स्थित सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया के साथ यह सम झौता हुआ है. गौरतलब है भारतीय कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया दुनिया की अग्रणी वैक्सीन निर्माता कंपनियों में से एक है. जो सम झौता हुआ है उस के मुताबिक सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया औक्सफोर्ड से वैक्सीन निर्माण की पूरी तकनीक हासिल कर के वैक्सीन का उत्पादन भारत में ही करेगी.
कोरोना वैक्सीन के उत्पादन के लिए सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया ने 200 मिलियन डौलर खर्च करने का लक्ष्य रखा है. इतनी बड़ी रकम के निवेश पर सीरम इंस्टिट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला का कहना है, ‘‘हालांकि परीक्षणों में अगर गड़बड़ी होती है या रैग्युलेटरी अप्रूवल में समस्या आती है तो हमें 200 मिलियन डौलर का नुकसान उठाना पड़ सकता है मगर हम ने यह निर्णय लिया कि हमें इस कठिन समय में मानवहित में कदम उठाना ही चाहिए और जोखिम लेना चाहिए. यह कारोबारी फैसला जोखिमभरा तो है लेकिन इस की जरूरत को देखते हुए हम ने यह फैसला किया है.’’
ये भी पढ़ें- चीन में अभी भी हैं भारतीय स्टूडैंट्स
औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की वैक्सीन की तकनीकी जानकारी भारत में नवंबर तक आने की उम्मीद है. उस के बाद कुछ अन्य ट्रायल्स के बाद इस का उत्पादन शुरू हो जाएगा. भारत में उत्पादित इस वैक्सीन को ‘कोविशील्ड’ के नाम से जाना जाएगा. भारत में इस की लौंचिंग से पहले वैक्सीन का बड़े पैमाने पर ह्यूमन ट्रायल भी किया जाएगा.
सीईओ अदार पूनावाला के मुताबिक, भारत में सभी लोगों को कोविशील्ड टीका लगाने में 2 साल तक का समय लग सकता है. कंपनी भारत में अगस्त में तीसरे चरण के ट्रायल के लिए आश्वस्त है. तीसरे चरण के ट्रायल को पूरा होने में दो से ढाई महीने का वक्त लगेगा और यह नवंबर तक पूरा हो जाएगा. सीरम इंस्टिट्यूट में निर्मित कोविशील्ड वैक्सीन का आधा स्टौक भारत के लिए होगा और आधा दूसरे देशों को निर्यात किया जाएगा.
कंपनी के सीईओ पूनावाला ने स्पष्ट किया है कि प्रत्येक महीने लगभग 60 मिलियन शीशियों में से भारत को 30 मिलियन मिलेंगी. इस वैक्सीन की कीमत प्रति शीशी एक हजार रुपए हो सकती है, लेकिन उम्मीद की जा रही है कि देश में सरकार ही वैक्सीन खरीद कर लोगों को टीकाकरण अभियान के जरिए निशुल्क उपलब्ध कराएगी. पूनावाला उम्मीद करते हैं कि कोरोना के टीके 2021 की पहली तिमाही तक बड़ी संख्या में भारत के लोगों तक पहुंच जाएंगे. उन का कहना है कि अभी यह बहुत सस्ती कीमत पर दिया जाएगा. वास्तव में महामारी खत्म होने के बाद कंपनी अधिक लाभ कमाने की दिशा में सोचेगी. कंपनी एक अधिक कमर्शियल प्राइस पर विचार कर रही है जिस पर यह वैक्सीन बाजार में उपलब्ध हो सकती है.
अदार पूनावाला का कहना है कि भारतीय औषधि महानियंत्रक से उत्पादन की आवश्यक अनुमति हासिल करने के बाद 5 हजार स्वयंसेवकों पर अगस्त के अंत में वैक्सीन का परीक्षण शुरू होगा और सबकुछ ठीक रहा, तो कंपनी अगले साल जून के करीब कोविशील्ड वैक्सीन को बाजार में ले आएगी.
भारतीय औषधि महानियंत्रक से उत्पादन की अनुमति मिलने के बाद एक महीने में भारत के अस्पतालों में भरती मरीजों पर वास्तविक परीक्षण शुरू करने की उम्मीद पूनावाला जताते हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमें मुंबई और पुणे के बीच बहुत सारे अस्पताल मिले हैं, जहां ट्रायल शुरू किए जाएंगे, क्योंकि यह ऐसी जगह है जहां मामले और जनसंख्या सब से अधिक है. भरती और बीमारी के लिहाज से यह परीक्षण के लिए एकदम सही है और परीक्षणों का आकार बाद में सांख्यिकीविद निर्धारित करेंगे. लेकिन ट्रायल में लगभग कुछ हजार रोगी, शायद 5 हजार के आसपास ही शामिल होंगे.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक टीकाकरण शुरू नहीं होता है तब तक इस महामारी के खतरे की आशंका बरकरार रहेगी और इस से बचने के सभी उपाय पूर्ववत जारी रखने होंगे, जिस में सोशल डिस्टैंसिंग, हाथ धोना और मास्क का इस्तेमाल अनिवार्य है.’’
औक्सफोर्ड और एस्ट्राजेनेका के 2 चरणों के ट्रायल के नतीजे यह संकेत दे रहे हैं कि कोविड-19 वैक्सीन की केवल 2 या 3 खुराक की आवश्यकता मरीजों में होगी, जैसे कि खसरा और अन्य बीमारियों के लिए होता है. यह शरीर के भीतर मजबूत इम्युनिटी तैयार करने में भी काफी कारगर दिखती है.
भारत में वैक्सीन की कितनी खुराक की आवश्यकता लोगों को होगी? इस सवाल के जवाब में अदार पूनावाला का कहना है कि पहले और दूसरे चरण के परीक्षणों से पता चला है कि जिन्होंने एंटीबौडी की एक खुराक ली, उन पर लगभग 28 दिनों तक और जिन्होंने दोहरी खुराक ली है उन पर 2 महीने तक असर रहता है.
अधिकांश टीकों की 2 से 3 खुराक देने की जरूरत होती है. इस में पहली खुराक प्राइमर है जहां आप 50-60 फीसदी सुरक्षित होते हैं और दूसरी खुराक आप को 70-80 फीसदी सुरक्षा प्रदान करती है. हम ऐसा अन्य सभी टीकों में देखते हैं.
अब कोविड-19 में भी इसी तरह की परिस्थितियां होने जा रही हैं. चूंकि सभी मनुष्य अलगअलग हैं, कुछ लोग केवल एक शौट (एक बार के टीके) के साथ बहुत अच्छी तरह से प्रतिक्रिया दे सकते हैं, लेकिन हो सकता है कि दूसरे लोग अगले शौट (अगली बार टीका लगने के) के बाद बेहतर प्रदर्शन करें. वहीं, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ एक बार टीका लगाने पर पर्याप्त प्रतिक्रिया नहीं देते हैं और उन्हें उस न्यूनतम स्तर की सुरक्षा के लिए दूसरी या तीसरी बार भी टीका लगाने की आवश्यकता होती है.
वे कहते हैं, ‘‘हम ने अध्ययन में पाया कि 90 फीसदी (जो बहुत अधिक है) लोगों में एक ही बार टीका लगाए जाने पर काफी अच्छी प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है. केवल बचे हुए 10 प्रतिशत हैं जिन्हें दूसरी बार टीका लगाने की आवश्यकता पड़ी. यह पूरी तसवीर को देखते हुए बहुत अच्छा आंकड़ा है. हालांकि, इस नतीजे पर पूरी तरह मुहर तब लगेगी जब तीसरे चरण के नतीजे भी हमारे सामने होंगे.’’
पूनावाला कहते हैं कि एक बार टीका लगवाने के बाद 2-3 महीनों तक प्रतीक्षा करने और यह देखने की आवश्यकता है कि क्या मरीज फिर संक्रमित हो रहा है या नहीं. यही प्रमाण है वैक्सीन की सफलता का और नवंबर तक इसे स्थापित करने की कोशिश की जा रही है.
वैक्सीन के दुष्प्रभाव पर चर्चा करते हुए पूनावाला ने कहा कि जिस प्रकार अन्य टीकों के साइड इफैक्ट होते हैं, जैसे बुखार, सिरदर्द या सूजन, वैसे ही थोड़ा साइड इफैक्ट कोरोना के टीके का भी नजर आएगा जो कि कोई गंभीर दुष्प्रभाव नहीं है. वे कहते हैं, ‘‘मु झे पूरा यकीन है कि सुरक्षा कोई मुद्दा नहीं होगा.’’
कोरोना वैक्सीन की उत्पादन प्रक्रिया में अदार पूनावाला किसी भी तरीके की जल्दबाजी से बचना चाहते हैं. वे कहते हैं कि सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया वैक्सीन बनाने की दौड़ में तो है मगर वह खुद को पहला साबित करने वाली किसी भी होड़ से खुद को दूर रखना चाहती है. परीक्षण और उत्पादन में किसी भी तरह की जल्दबाजी से बचना होगा. हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि हम जल्दबाजी न करें ताकि हम सब से अच्छा टीका बना सकें. सब से सुरक्षित जो मानवजाति को सब से लंबी अवधि की सुरक्षा प्रदान करे ताकि एक बार वैक्सीन लगवाने के बाद फिर संक्रमण का खतरा उत्पन्न न हो.
पूनावाला कहते हैं, ‘‘सीरम इंस्टिट्यूट ने ब्रिटेन की औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अलावा भी 5 अन्य उम्मीदवारों पर दांव लगाया है. लगभग हर 2 महीने में हम एक नया कोविड टीका लौंच करने की योजना बना रहे हैं. पहले औक्सफोर्ड उत्पाद के साथ शुरू कर रहे हैं क्योंकि यह परीक्षण में सफल भी है. लेकिन हम सिर्फ उन्हीं की वैक्सीन तकनीक पर निर्भर नहीं हैं. मु झे यकीन है कि हम ने जो अन्य 5 चुने हैं उन में से एक से अधिक वैक्सीन सफल रहेंगी.’’
उम्मीद की जा रही है कि भारत में दिसंबर 2020 और 2021 की पहली तिमाही के बीच कोरोना का टीका लौंच कर दिया जाएगा. देश के सभी हिस्सों तक पहुंचाने में कुछ समय लगेगा क्योंकि जो कंपनी टीके का उत्पादन करती है वह पहले खुद इस का परीक्षण करती है और फिर यह सीडीआई को जाता है जो कसौली में राष्ट्रीय रिलीज है और उस के बाद केवल एक बैच को जनता के लिए जारी किया जा सकता है.
आमतौर पर किसी वैक्सीन को अप्रूव करने से पहले उस पर और रिसर्च की जाती है. वैक्सीन अप्रूव होने के बाद भी कुछ वर्षों तक उस के असर पर नजर रखी जाती है. मगर कोरोना वायरस जिस तीव्र गति से प्रसार पा रहा है उस को देखते हुए सबकुछ बहुत जल्दी किए जाने की जरूरत सम झी जा रही है. इस वजह से कुछ स्टैप्स छोड़े भी जा सकते हैं. कोरोना के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सभी प्रक्रियाएं तेजी से पूरी की जा रही हैं. वैक्सीन की पहली कुछ मिलियन खुराकें हैल्थकेयर कर्मचारियों, डाक्टरों और अधिक खतरे में काम करने वाले लोगों के लिए उपलब्ध करवाने का लक्ष्य है.
दुनियाभर में बन रही हैं वैक्सीन
कोरोना वैक्सीन के डैवलपमैंट और ट्रायल में भले ही ब्रिटेन की औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की चर्चा सब से ज्यादा हो, लेकिन चीन वह मुल्क है जिस ने कई वैक्सीन कैंडिडेट्स को अलगअलग देशों में ट्रायल पर रखा है. दुनिया की टौप 20 कोविड-19 वैक्सीनों में से 8 चीन की हैं. वहां की 3 वैक्सीन ट्रायल के आखिरी स्टेज में हैं. जरमनी अभी अपनी वैक्सीन डैवलप करने के सैकंड स्टेज में है जबकि आस्ट्रेलियाई कंपनियां पहले स्टेज में हैं. मलयेशिया में कोरोना वैक्सीन का इंसानों पर ट्रायल शुरू हो चुका है.
बंगलादेश मैडिकल रिसर्च काउंसिल ने एक चीनी कंपनी की बनाई कोविड वैक्सीन को फेज 3 ट्रायल की मंजूरी दे दी है. यह ट्रायल वहां के 7 अस्पतालों में इस महीने शुरू हो गया है. बंगलादेश के 4,200 हैल्थ वर्कर्स पर चीनी कंपनी सिनोवैक रिसर्च एंड डैवलपमैंट कंपनी लिमिटेड द्वारा बनाई वैक्सीन का ट्रायल होगा. इस का फेज 1 और 2 ट्रायल चीन में हो चुका है.
रूस की वैक्सीन के ट्रायल में बाजी मारने की रिपोर्ट पिछले दिनों आई थी. अब वहां के स्वास्थ्य मंत्री ने कहा है कि वे थर्ड फेज क्लीनिकल ट्रायल से पहले ही जनता को वैक्सीन उपलब्ध करा सकते हैं. रूस की 2 तरह की वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल 3 अगस्त से रूस के साथसाथ यूएई में भी शुरू हो गया है. रूस ने दावा किया है कि उस ने कोरोना वायरस की एक वैक्सीन का इंसानों पर ट्रायल पूरा कर लिया है. कहा जा रहा है कि वहां के अरबपतियों ने अप्रैल महीने में ही कोरोना का टीका लगवा लिया था. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, रूस के अरबपतियों और राजनेताओं को कोरोना वायरस की प्रायोगिक वैक्सीन को अप्रैल में ही दे दिया गया था.
उधर यूनाइटेड किंगडम ने औक्सफोर्ड और एस्ट्राजेनेका कंपनी के अलावा भी कई अलगअलग फार्मा कंपनियों से डील कर 9 करोड़ वैक्सीन डोज का इंतजाम कर लिया है. वैक्सीन जब भी बाजार में आएगी, ब्रिटेन को सब से पहले 9 करोड़ डोज मिल जाएंगी. इन में से 3 करोड़ डोज जरमनी की कंपनी बायो एन टैक और न्यूयौर्क स्थित अमेरिकी बहुराष्ट्रीय दवा निगम फाइजर देंगी. यह वैक्सीन अभी फेज 2 ट्रायल में है. वल्नेवा एसआई बायोटेक कंपनी, जिस का मुख्यालय फ्रांस में है, से भी 6 करोड़ डोज का टाईअप यूके ने किया है, जिसे बढ़ा कर 10 करोड़ भी किया जा सकता है.
अमेरिकी बायोटेक कंपनी मौडर्ना की कोविड-19 वैक्सीन ट्रायल के अंतिम दौर में है. हालिया स्टडी में वैक्सीन ने क्लीनिकल ट्रायल में अच्छे नतीजे दिए हैं. पहले फेज में सभी 45 वौलंटियर्स के शरीर में एंटीबौडी बनीं. फेज 3 ट्रायल में 30 हजार वौलंटियर शामिल होंगे. आधे को वैक्सीन की 100 माइक्रोग्राम डोज दी जाएगी, जबकि बाकी को प्लेसीबो. कहा जा रहा है कि मौडर्ना की वैक्सीन दुनिया की सब से ऐडवांस्ड वैक्सीन में शामिल है.
ट्रायल फेज में देसी वैक्सीन
भारत में बनी पहली कोरोना वैक्सीन ‘कोवैक्सीन’ का ह्यूमन ट्रायल दिल्ली स्थित एम्स में शुरू हो चुका है. यहां ट्रायल की जिम्मेदारी पिं्रसिपल इनवेस्टिगेटर डा. संजय राय संभाल रहे हैं. एम्स देश की उन 12 जगहों में से एक है जहां ‘कोवैक्सीन’ का ट्रायल हो रहा है. यहां का सैंपल साइज पूरे देश में सब से बड़ा है, इसलिए यहां के नतीजे पूरी रिसर्च की दिशा तय करेंगे. एम्स पटना और रोहतक पीजीआई में वैक्सीन का ट्रायल पहले ही चल रहा है. गोवा में भी ट्रायल की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.
उल्लेखनीय है कि आईसीएमआर और भारत बायोटेक ने मिल कर ‘कोवैक्सीन’ को बनाया है. पहले 5 वौलेंटियर्स के साथ ट्रायल शुरू हो चुका है और कुछ दिनों बाद अन्य 5 का वैक्सीनेशन होगा. कुल 10 मरीजों पर वैक्सीनेशन के बाद इन की सुरक्षा की समीक्षा होगी. उस के बाद ही इस ट्रायल को आगे बढ़ाया जाएगा. एम्स में वैक्सीनेशन एरिया इमरजैंसी के पास बनाया गया है, ताकि वैक्सीन का तत्काल कोई रिऐक्शन हो तो वौलंटियर्स को तुरंत इलाज उपलब्ध कराया जा सके. यह वैक्सीन 2 डोज में दी जाएगी. इस की पहली डोज 24 जुलाई को दी गई है और अगली 14 दिन बाद दी जाएगी.
एम्स ने वैक्सीन के फेज-1 के ट्रायल में 100 लोगों को शामिल किया है. पहले 10 लोगों की वैक्सीनेशन रिपोर्ट वैक्सीनेशन की निगरानी कर रही एथिक्स कमेटी को भेजी जाएगी. कमेटी के रिव्यू के बाद वैक्सीनेशन प्रोग्राम को आगे बढ़ाया जाएगा. वैक्सीन के लिए रजिस्ट्रेशन का काम भी साथसाथ चल रहा है. अब तक 3,500 लोग रजिस्ट्रेशन करा चुके हैं. सभी को अलगअलग तारीखों पर एम्स बुलाया जा रहा है और स्क्रीनिंग के लिए सैंपल लिए जा रहे हैं.
डैंग लैब को मिली जिम्मेदारी
आईसीएमआर और भारत बायोटेक द्वारा बनाई गई कोविड वैक्सीन के ट्रायल में शामिल होने वाले वौलंटियर्स के स्क्रीनिंग यानी लैब जांच की जिम्मेदारी डैंग लैब को दी गई है. यह एक प्राइवेट लैब है. स्क्रीनिंग में 50 तरह की जांचें हो रही हैं. कोविड के अलावा डायबिटीज, हाइपरटैंशन, किडनी, लिवर, हार्ट फंक्शन सहित लगभग 50 तरह के पैरामीटर्स की जांच में खरा उतरने वाले लोगों को ही ट्रायल में शामिल किया जा रहा है.
कोवैक्सीन को हैदराबाद की भारत बायोटैक ने इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और नैशनल इंस्टिट्यूट औफ वायरोलौजी (एनआईवी) के साथ मिल कर बनाया है. वैक्सीन का कोडनेम क्चक्चङ्क152 है. कोवैक्सीन एक ‘इनऐक्टिवेटेड’ वैक्सीन है. यह उन कोरोना वायरस के पार्टिकल्स से बनी है जिन्हें मार दिया गया था ताकि वे इन्फैक्ट न कर पाएं. इस की डोज से शरीर में वायरस के खिलाफ एंटीबौडीज बनती हैं.
कोवैक्सीन को फेज 1 और फेज 2 ट्रायल के लिए ड्रग कंट्रोलर जनरल औफ इंडिया से मंजूरी मिल चुकी है. पहले फेज में कुल 375 लोगों पर ट्रायल होगा जबकि दूसरे में 750 पर. इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च ने ट्रायल के लिए उन्हीं इंस्टिट्यूट्स को चुना है जहां पर क्लिनिकल फार्माकौलोजी विंग है और ह्यूमन ट्रायल में एक्सपीरियंस हैल्थकेयर प्रोफैशनल्स हैं.
ट्रायल की सारी डिटेल्स इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च को भेजी जाएंगी. वहीं पर डेटा को एनेलाइज किया जाएगा. वैक्सीन की 2 डोज – पहली पहले दिन और दूसरी 14वें दिन – दी जाएंगी. ट्रायल में ‘डबल ब्लाइंड’ तकनीक का भी इस्तेमाल होगा जिस में न तो वौलंटियर, न ही रिसर्चर्स को पता रहेगा कि किसे वैक्सीन दी जा रही है और किसे प्लेसीबो.
क्या है प्लेसीबो
प्लेसीबो एक तरह की चिकित्सा पद्धति है. इस का सब से पहले औषधीय प्रयोग 18वीं शताब्दी में हुआ था. इस को आसान भाषा में यों सम झा जा सकता है कि इस पद्धति में इलाज के लिए कोई दवा नहीं दी जाती, बल्कि दवा का एहसास मात्र होता है. यानी, एक तरह के यकीन पर आधारित उपचार है.
दरअसल, इस उपचार पद्धति में रोगी को कुछ टेबलेट और कैप्सूल दिए जाते हैं लेकिन उस में असल में कोई दवा नहीं होती है. एक तरह से आप इसे ऐसे सम झ सकते हैं कि हम ज्यादातर समय बीमार नहीं होते हैं बल्कि हमें बीमारी का भ्रम होता है. इस पद्धति में इस भ्रम का ही इलाज किया जाता है. आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों में ऐसी गोलियां सफलतापूर्वक उपयोग की जा रही हैं.
यह हैरत की बात है कि कैसे बिना दवा के रोगी ठीक हो जाता है या उसे लाभ पहुंचता है. यानी, इस पद्धति में यह भी माना जाता है कि अपने मन के विश्वास से भी किसी बीमारी से लड़ा जा सकता है.
इस को एक उदाहरण से सम झा जा सकता है. हम सब जानते हैं कि बदलते मौसम में होने वाला सर्दीजुकाम 3-4 दिन में ठीक हो जाता है और इस में दवा की जरूरत नहीं होती है. लेकिन इस के बावजूद अधिकांश लोग दवा लेते हैं और इन दवाओं के साइड इफैक्ट्स का खतरा झेलते हैं. लेकिन प्लेसीबो पद्धति में डाक्टर, दरअसल, कोई दवा नहीं देता है बल्कि ऐसी गोली और कैप्सूल देता है जिस में कोई दवा नहीं होती है, लेकिन रोगी को लगता है कि वह दवा खा रहा है और उस के बाद वह खुदबखुद 3-4 दिनों में ठीक हो जाता है और उस को लगता है कि वह दवा से ठीक हुआ है. हालांकि इस पद्धति का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है फिर भी कोरोना के इलाज में इस पद्धति को भी शामिल किया जा रहा है.
टी-सैल्स हैं पक्के लड़ाके
कोरोना के खिलाफ इम्युनिटी की गारंटी रोग प्रतिरोधक क्षमता या एंटीबौडी नहीं, बल्कि टी-सैल्स हैं. कोरोना वायरस महामारी के इस दौर में एंटीबौडी शब्द बहुत प्रचलित हुआ है. अब तक माना जाता रहा है कि शरीर में एंटीबौडी होने का मतलब है ‘कोरोना प्रूफ’ होना. लेकिन नई रिसर्च बताती हैं कि एंटीबौडी नहीं, बल्कि शरीर में टी-सैल्स की मौजूदगी ‘कोरोना प्रूफ’ की गारंटी है.
कोरोना वायरस वैक्सीन डेटा में कोरोना के प्रति इम्युनिटी के लिहाज से टी-सैल्स को काफी अहम पाया गया है. एस्ट्राजेनेका, फाइजर और उस के पार्टनर बायो एनटैक एसई के साथसाथ चीन के कैनसिनो बायोलौजिक्स की बनाई गई कोरोना वैक्सीन से जुड़े डेटा में एंडीबौडीज के बजाय टी-सैल्स की मौजूदगी को इम्युनिटी के लिहाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बताया गया है. रिपोर्ट की मानें, तो शरीर में यदि टी-सैल्स सक्रिय हैं तो यह काफी लंबे वक्त के लिए इम्युनिटी की गारंटी है. टी-सैल्स को टी-लिम्फोसाइट भी कहा जाता है. यह ल्यूकोसाइट यानी सफेद रक्त कणिकाओं का एक प्रकार है जो हमारे इम्यून सिस्टम का बहुत ही अहम हिस्सा है. टी-सैल्स संक्रमित कोशिकाओं पर सीधे वार कर उन्हें खत्म करते हैं और दूसरे इम्यून सैल्स को सक्रिय कर देते हैं. इन्हें कोरोना संक्रमण के खिलाफ एंटीबौडी से ज्यादा भरोसेमंद माना जा रहा है.
क्यों एंटीबौडीज से ज्यादा भरोसेमंद हैं टी-सैल्स?
कोरोना को ले कर हो रही रिसर्च में खुलासा हुआ है कि एंटीबौडीज लंबे वक्त तक सक्रिय नहीं रह पाती हैं और तेजी से उन की संख्या भी घट जाती है. दूसरी तरफ टी-सैल्स संक्रमित कोशिका को पूरी तरह खत्म कर देते हैं. उन्हें कई दशकों तक पुरानी बीमारी याद रहती है और जब कभी शरीर पर उस तरह का हमला दोबारा होता है तो वे उसी तरह रिस्पौंस करते हैं जैसे पहली बार किया था. कोरोना वायरस के ही एक प्रकार सार्स के प्रति वर्ष 2003 में जिन लोगों में टी-सैल्स रिस्पौंस पैदा हुआ था, वे उस बीमारी के 17 वर्षों बाद भी सक्रिय हैं यानी वे लोग फिर से सार्स से संक्रमित नहीं होंगे.
गौरतलब है कि कोरोना वायरस मरीजों पर अलगअलग तरह से हमला कर रहा है. किसी को बहुत हलका संक्रमण हो रहा है, तो किसी को बहुत ही गंभीर संक्रमण हो रहा है. यहां तक कि तमाम मरीजों की मौत तक हो रही है. हो सकता है कि इस की वजह कुछ मरीजों के शरीर में पहले से टी-सैल्स की मौजूदगी हो. हालांकि, इसे तय करने के लिए अभी और रिसर्च की जरूरत है.
दुनिया की नजर भारत पर
भारत की गिनती जेनेरिक दवाओं और वैक्सीन की दुनिया में सब से बड़े मैन्युफैक्चरर्स में होती है. देश में वैक्सीन बनाने वाली आधा दर्जन से ज्यादा बड़ी कंपनियां हैं. इस के अलावा कई छोटी कंपनियां भी वैक्सीन बनाती हैं. ये कंपनियां पोलियो, मैनिनजाइटिस, निमोनिया, रोटावायरस, बीसीजी, मीजल्स, मंप्स और रूबेला समेत दूसरी बीमारियों के लिए वैक्सीन बनाती हैं. ऐसे में कोरोना वैक्सीन के लिए भी दुनिया भारत की ओर काफी आशाभरी नजरों से देख रही है. कोरोना वैक्सीन पर देश की 7 कंपनियां काम कर रही हैं. घरेलू फार्मा कंपनियों की बात की जाए, तो भारत बायोटैक, सीरम इंस्टिट्यूट, जायडस कैडिला, पैनेशिया बायोटैक, इंडियन इम्यूनोलौजिक्स, मायनवैक्स और बायोलौजिकल ई कोविड-19 का टीका तैयार करने का प्रयास कर रही है.
कोवैक्सीन, भारत बायोटैक : इस का निर्माण कंपनी के हैदराबाद के कारखाने में किया जा रहा है. इस का ह्यूमन ट्रायल शुरू हो चुका है. पहले और दूसरे चरण के क्लीनिकल परीक्षण की अनुमति मिली है.
एस्ट्रजेनेका, सीरम इंस्टिट्यूट वैक्सीन : फिलहाल कंपनी एस्ट्रजेनेका और औक्सफोर्ड वैक्सीन पर काम कर रही है. कंपनी की अगस्त 2020 में भारत में मानव परीक्षण शुरू करने की योजना है. इस का तीसरे चरण का क्लीनिकल परीक्षण शुरू होने वाला है.
जाइकोव-डी, जायडस कैडिला वैक्सीन : परीक्षण के दौरान टीका प्रभावी साबित होता है, तो टीका बाजार में उतारने में 7 माह लगेंगे. कंपनी अध्ययन के नतीजों के आधार पर काम करेगी. कंपनी को क्लीनिकल परीक्षण 7 माह में पूरा करने की उम्मीद है.
पैनेशिया बायोटैक वैक्सीन : टीका विकसित करने के लिए अमेरिका की रेफैना के साथ करार किया है. कंपनी की आयरलैंड में एक संयुक्त उद्यम स्थापित करने की योजना है. 4 करोड़ से अधिक खुराक अगले साल तक आपूर्ति की जा सकेंगी. प्री क्लीनिकल ट्रायल जारी है.
इंडियन इम्यूनोलौजिक्स वैक्सीन : टीका विकसित करने के लिए आस्ट्रेलिया के साथ करार किया है. कंपनी आस्ट्रेलिया की ग्रिफिथ यूनिवर्सिटी के साथ मिल कर रिसर्च करेगी. अभी प्री क्लीनिकल ट्रायल जारी है.
मायनवैक्स वैक्सीन : 18 माह में टीका विकसित करने की कंपनी की योजना है. कंपनी की 2 दर्जन टीमें टीका विकसित करने की दिशा में काम कर रही हैं. कंपनी ने 15 करोड़ रुपए की राशि के लिए बीआईआरएसी को अर्जी दी है. फिलहाल प्री क्लीनिकल ट्रायल जारी है.
बायोलौजिकल ई वैक्सीन : अभी प्री क्लीनिकल ट्रायल ही जारी है.
कोरोना वायरस वैक्सीन के बारे में आइए जानते हैं सीएमएएओ और हार्ट केयर फाउंडेशन औफ इंडिया के अध्यक्ष व इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डा. के के अग्रवाल से कुछ जरूरी बातें.
वैक्सीन क्या होती है?
वैक्सीन ऐसी दवा है जो शरीर की इम्युनिटी को बढ़ाती है और बीमारी से बचाव करती है. यह वास्तव में मृत अथवा निष्क्रिय जीवाणुओं या विषाणुओं का सस्पैंशन होता है. वैक्सीन जीवाणु या विषाणु के शरीर का उपयोग कर के बनाया गया द्रव्य है जिस के प्रयोग से शरीर की किसी रोग विशेष से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है.
यह शरीर में कैसे काम करती है?
वैक्सीन लगाने के बाद रोग उत्पन्न करने में असमर्थ मृत जीवाणु और शरीर में एक प्रकार की लड़ाई होती है जिस के कारण शरीर में टी लिम्फोसाइट्स और एंटीबौडीज बन जाती हैं. ये मैमोरी के रूप में शरीर में स्टोर होती हैं. जब वह जीवाणु शरीर पर हमला करता है तो यह स्टोर्ड मैमोरी जीवित जीवाणुओं की आक्रामक शक्ति को निर्बल कर उन्हें निष्क्रिय कर देती है जिस से उन में रोग करने की क्षमता तो नहीं रहती, किंतु एंटीबौडीज बनाने की शक्ति बनी रहती है. कितने चरण में यह तय हो जाता है कि अब इसे बाजार में उतार देना चाहिए?
पहले चरण में कोरोना वायरस का स्पाइक प्रोटीन का जेनेटिक कोड पहचाना जाता है. दूसरे चरण में चिंपैंजी के एडीनोवायरस को जेनेटिकली मोडिफाई कर के स्पाइक प्रोटीन बनाए जाते हैं.
शरीर में जाने के बाद यह प्रोटीन कोरोना की एंटीबौडीज बनाने लगता है. तीसरे चरण में मनुष्य पर ट्रायल किया जाता है. तीसरे चरण के फेज ट्रायल में लगभग
3 हजार लोगों पर वैक्सीन ट्राई की जाती है. यदि एंटीबौडीज बनती हैं तो सफल ट्रायल माना जाएगा. उस के बाद ही वैक्सीन बाजार में आएगी.
क्या यह 100 फीसदी कारगर होगी?
कोई भी वैक्सीन सौ फीसदी कारगर नहीं होती. यदि 70 फीसदी लोगों में एंटीबौडीज बन जाती हैं तो ट्रायल कारगर है और 30 फीसदी लोगों से कम में बनती हैं तो फेलियर है. यह वैक्सीन तत्काल कौंप्लिकेशंस से तो बचाएगी पर डिलेड कौंप्लिकेशंस से बचाएगी या नहीं, यह बाद में पता चलेगा. जैसे पोलियो की वैक्सीन सौ फीसदी कारगर नहीं है, फिर भी देश से पोलियो खत्म हो गया.
वैक्सीन कैसे वायरस को टारगेट करती है?
जैसे किसी भी आपातकाल के लिए मौकड्रिल की जाती है वैसे ही वैक्सीन वायरस को स्टोर्ड मैमोरो से खत्म करेगी.
इस के साइड इफैक्ट्स क्या हैं?
वैक्सीन के बाद कुछ लोगों में साइड इफैक्ट्स देखने को मिलते हैं, जैसे बुखार, सिरदर्द और लोकल साइड इफैक्ट – इंजैक्शन वाली जगह पर सूजन, जलन या लाली. अधिकतर ये खुद ही ठीक हो जाते हैं.
इस का स्ट्रक्चर कैसा होता है ?
यह लाइव एटीनुऐटिड वैक्सीन है.
यह यूनिवर्सल होगा या भौगोलिक स्थिति के हिसाब से फर्क होगा?
मेरे ख्याल से यह अर्थव्यवस्था के हिसाब से होगा और अमीर लोग गरीबों की वैक्सीन का खर्च वहन करेंगे.
सब से पहले वैक्सीन किस वर्ग को दी जाएगी?
मेरा मानना है सब से पहले वैक्सीन हाई रिस्क वर्ग को दी जाएगी.