इंद्रापुरम गाज़ियाबाद निवासी विकास सक्सेना कहते हैं, ‘हम जिस बिल्डिंग में रहते हैं उसमें हमारा फ्लैट सातवीं मंजिल पर है. मेरा 11 साल का बेटा पांच महीने से घर में कैद है. टीवी देखने और ऑनलाइन क्लासेज के अलावा वह सारा समय खिड़की पर बैठ कर नीचे पार्क में देखता रहता था, जहाँ वह लॉक डाउन से पहले तक हर दिन अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता था. लॉक डाउन में घर या ऑफिस के काम से मैं दिन में दो-तीन बार बाहर जाता हूँ. वाइफ भी घर का सामान वगैरा लेने के लिए निकलती है, मगर बेटा घर में ही रहता है. कोरोना के डर से इन पांच महीनों में हमें उसको एक बार भी बाहर नहीं जाने दिया और हमें पता ही नहीं चला कि कब उसका मन घर में बंद रहते रहते घुटना शुरू हो गया. वह मानसिक रूप से परेशान रहने लगा. पिछले महीने उसने नीचे पार्क में जाने की ज़िद की तो हमने बीमारी लगने का डर दिखा कर मना कर दिया. फिर उसने कई बार बाहर जाने की ज़िद की और हर बार उसको मना कर दिया गया. पिछले हफ्ते वह अपनी माँ से लड़ा कि नीचे पार्क में और सड़क पर कितने बच्चे खेलते हैं उनको तो कुछ नहीं होता, बस आप लोग मुझे ही नहीं जाने देते. उसके बाद उसने खाना-पीना छोड़ दिया.

हमने सोचा नाराज़ है. समझाने पर ठीक हो जाएगा मगर अचानक उस दिन अपना लकड़ी का बैट उठा कर उसने खिड़की का शीशा, अलमारी का शीशा और ड्रेसिंग टेबल सब तोड़नी शुरू कर दी. बिलकुल पागलों जैसी हरकत करने लगा. उसको काबू करने में हम दोनों को पसीने छूट गया. मैंने बड़ी ज़ोर का तमाचा भी रसीद दिया उसको. हमारा इकलौता बेटा है. बड़ी तकलीफ हुई मगर उसको काबू करने का कोई और रास्ता नज़र नहीं आया. बहुत समझाया-बुझाया. बाहर ले कर चलने का वादा किया. लेकर भी गए. मगर उस दिन से वह बहुत गुमसुम सा हो गया है. उसके मन में क्या चल रहा है हमें कुछ भी पता नहीं चल रहा है. हम उसको कई बार बाहर ले कर गए हैं, मगर उसकी उदासी दूर नहीं हो रही है. इस कोरोना ने मेरे बच्चे को मेंटली डिस्टर्ब कर दिया है. अब हम उसके लिए कोई अच्छा साइकैट्रिस्ट ढूंढ रहे हैं.’

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कोविड-19 महामारी से पूरी दुनिया प्रभावित हैं. इस वर्ष के शुरुआत से ही महामारी के डर ने इंसान को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. फरवरी-मार्च में इसके आतंक से दुनिया कांपने लगी. फरवरी के मध्य में इटली में हो रही मौतें वीभत्स आंकड़े दिखाने लगी, तब लोगों का डर चरम पर पहुंच गया. मार्च के शुरुआती समय में ही भारत के स्कूल-कॉलेज बंद होने शुरू हो गए थे. मार्च के मध्य तक लोगों में संक्रमण का भय बढ़ता ही चला गया. 22 मार्च से लॉक डाउन हो गया और बच्चों और बूढ़ों के तो घर से बाहर निकलने पर पूरी तरह रोक लग गयी. महामारी ने बच्चों और किशोरों को विशेष रूप से प्रभावित किया. करीब पांच महीने से बच्चे घर में कैद हैं. इससे उनके खेलने कूदने वाला बाल-मन छटपटा रहा है. वह खुद को कैदी की तरह समझने लगे हैं. खासतौर पर उन घरों के बच्चे ज़्यादा परेशानी महसूस कर रहे हैं जो अपने घरों में बंद खिड़की या बालकनी से अपने आसपास स्लम एरिया के बच्चों को मज़े से सड़कों पर बिना मास्क के घूमते और खेलते देखते हैं. वो अपने पेरेंट्स से पूछते हैं कि जब उसको कुछ नहीं हो रहा तो मुझे क्यों हो जाएगा?

कोरोना महामारी बच्चों और किशोरों के लिए बहुत कठिन समय लेकर आया है. लॉकडाउन की वजह से बच्चों का विकास और व्यवहार बुरी तरह प्रभावित हुआ है. उनके नियमित स्कूल शेड्यूल में व्यवधान के कारण बच्चों और उनके माता-पिता दोनों के लिए कई चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं. ये समस्याएं कोई क्षेत्रीय समस्या नहीं हैं, पूरी दुनिया एक समान इन कठिनाइयों को झेल रही है. ब्रिटेन में हुए हालिया शोध में यह खुलासा हुआ है. यूके के तीन संगठनों द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में पाया गया है कि कुछ अभिभावक लॉकडाउन के दौरान बच्चों की निगरानी और देखभाल से बहुत परेशान हैं. अभिभावक यह भी महसूस कर रहे हैं कि इन पांच महीनों में बच्चों के व्यवहार में बहुत परिवर्तन आया है. वे ज्यादा चिड़चिड़े, आक्रामक और ज्यादा रोते हुए नजर आ रहे हैं. यह शोध बेस्ट बीगनिंग, होम-स्टार्ट यूके और पेरेंट- इंफैंट फाउंडेशन ने मिलकर किया.

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सर्वे का कहना है कि इन बच्चों पर कोविड-19 का असर गंभीर और लंबे समय तक मौजूद रहने वाला हो सकता है. महामारी के कारण देखभाल करने वाले और बच्चे दोनों ही प्रभावित हुए हैं. सर्वे में शामिल हुए 34 प्रतिशत लोगों का मानना है कि लॉकडाउन की अवधि के दौरान उनके साथ उनके बच्चे का व्यवहार बदल गया है. लगभग आधे माता-पिता (47 प्रतिशत) ने कहा कि उनका बच्चा अधिक चिड़चिड़ा हो गया है. एक चौथाई (26 प्रतिशत) ने अपने बच्चे के सामान्य से अधिक रोने की सूचना दी.

एक मां ने बताया कि लॉकडाउन के कारण उनकी घबराहट बढ़ गई थी और उनको पैनिक अटैक आ रहे थे. उनकी हालत देखकर उनका बच्चा भी चिड़चिड़ा हो गया और ज्यादा रोने लगा. वहीं, कुछ माताओं ने कहा कि उनके बच्चे लॉकडाउन के दौरान ज्यादा आक्रामक हो गए और इस वजह से उनको डाट और मार का सामना करना पड़ा, जिसका नतीजा यह हुआ कि वह हमेशा उदास रहने लगे.

एक पिता कहते हैं कि डेढ़ घंटे ऑनलाइन पढ़ाई के बाद उनका बेटा टीवी देखता रहता है. जिसका नतीजा ये है कि उसको सिरदर्द की शिकायत हो गयी है और उसका वज़न काफी बढ़ गया है. इसके साथ ही वह अब अपने पेरेंट्स से उस तरह हँसता-बोलता नहीं है जैसा पहले करता था. वह हर वक़्त उदास सा और अपने में गुमसुम नज़र आता है. टीवी देखते वक़्त उसको कुछ ना कुछ खाने को चाहिए. ना मिलने पर वह गुस्सा दिखाता है.

सर्वे रिपोर्ट कहती है कि बच्चे लॉकडाउन में सबसे नहीं मिल पाने के कारण चिड़चिड़े हो गए हैं. अभिभावकों को चिंता सता रही है कि लॉकडाउन के कारण बच्चों पर पड़े दुष्प्रभाव का बाद की जिंदगी में कितना बुरा असर होगा. घर में नजरबंद होने से बच्चों की गतिविधियों में महत्वपूर्ण गिरावट आई है. खेल के मैदान बंद है, तैराकी के लिए तरणताल बंद है, संगीत और नृत्य कक्षाएं बंद हैं, और इसी प्रकार के सामूहिक गतिविधि वाले कार्यक्रम बंद है जिससे बच्चों की शारीरिक गतिविधियां न्यनतम हो गयीं है. इससे बच्चों में शारीरिक सुस्ती, अत्यधिक वजन बढ़ना और नींद की समस्याओं का जोखिम पैदा हो गया है.

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छोटे बच्चों में विघटनकारी व्यवहार, चिड़चिड़ापन, नींद की गड़बड़ी, इत्यादि लक्षण आ रहे हैं क्यूंकि वो उस अज्ञात बीमारी के बारे में चिंता करते रहते हैं जिसे उनका छोटा दिमाग समझ नहीं सकता. थोड़े बड़े बच्चे और किशोर एक नई ऑनलाइन प्रणाली के माध्यम से स्कूल की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और इस नयी प्रणाली को आत्मसात करने में उनको तनाव का सामना करना पड़ रहा है. बच्चे अपने दोस्तों से मिलने में अक्षम हैं, जिसकी वजह से वो आपसी बातों को खुल कर साझा नहीं कर पा रहे. इसके ऊपर इस बीमारी से संक्रमित होने का डर या संक्रमण से बचाव की चिंता में डूबे अपने प्रियजनों को देख कर बच्चो में भी चिंता, अवसाद, नींद की समस्या, इत्यादि लक्षण पैदा हो रहे हैं.

कामकाजी या घर में रहने वाले माता-पिता भी अपने काम की उम्मीदों, घर के काम और साथ ही अपने बच्चों की ई-लर्निंग की अतिरिक्त जिम्मेदारियों को निभाने के लिए चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. बढ़ती बेरोजगारी और अपने परिवारों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करने के कारण परिवारों पर वित्तीय तनाव सर्वोपरि है. यह सब परिवारों के लिए तनाव और अवसाद को बढ़ा रहा है. जो बच्चा पहले दिन भर स्कूल में होता था वह परिवार के बड़ों के बीच आपसी मनमुटाव, लड़ाई-झगड़ा कम ही देखता था मगर लॉक डाउन में वह पूरे समय घर पर ही है लिहाज़ा घर में घटने वाली घटनाओं का भी साक्षी बन रहा है, जो उसके कोमल मन पर बुरा असर डाल रही हैं. कहीं माता-पिता की आपसी टकराहट देख रहा है, कहीं सास-बहु की नोकझोंक तो कहीं बड़े भाई बहनों की लड़ाई से उसका सामना हो रहा है. इन तकलीफों को वो अपने दोस्तों के साथ शेयर भी नहीं कर पा रहा है. यह घुटन उसको मानसिक बीमारियों की ओर धकेल रही है.

बच्चे के व्यवहार में होने वाले बदलाव को नज़रअंदाज़ ना करें           

कोरोना महामारी और लॉक डाउन की वजह से बच्चों के जीवन में आ रहे बदलाव को समझने की कोशिश करें. इन्हें नज़रअंदाज़ करना बच्चे के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. बच्चे को इस महामारी के खतरों से आगाह करवाना बहुत ज़रूरी है. साथ ही अपने बच्चे को यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त ज्ञान दें कि वे सुरक्षित तरीकों को अपनाते हुए खुद को स्वस्थ रखने में सक्षम हो. उन्हें आश्वस्त करने के लिए यह भी आवश्यक है कि आप उन्हें यह भरोसा दिलाएं की आप उनकी देखभाल करने के लिए वहां हैं. अगर बच्चे इस अनिश्चित समय के दौरान स्वयं को सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे तो वो चिड़चिड़े होने के साथ साथ मानसिक अवसाद से ग्रस्त हो जायेंगे. यदि माता-पिता महसूस करते हैं कि उनके बच्चे इस लॉकडाउन स्थिति को अच्छी तरह से संभालने में सक्षम नहीं हैं, चिंतित होने के बजाय मनोचिकित्सक या विशेषज्ञ से बात करें और उनसे सहायता प्राप्त करें.

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कठिन समय होने के बावजूद यह माता-पिता के लिए एक स्मरणीय पल है कि वे अपने बच्चों के साथ बहुत समय बिता रहे हैं, जो कि वे साधारणतः अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण नहीं बिता पाते हैं. बच्चों के लिए एक दिनचर्या तय करें और उसका पालन करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करें. प्रतिदिन स्नान, घर की स्वच्छता बनाए रखना, अच्छे कपड़े पहन कर तैयार होना, इत्यादि सभी परिवार के सदस्यों की दिनचर्या में होना चाहिए. ऐसे समय के दौरान, जब बच्चे दोस्तों के साथ घुल-मिल या खेल-कूद नहीं सकते, शाम को उनके लिए कुछ शारीरिक गतिविधियों की योजना बनानी चाहिए, जिसका पालन करने से बच्चों की शारीरिक गतिविधियां चलती रहेंगी और उन्हें पर्याप्त थकान होगी, जिससे बिस्तर पर जाते ही उन्हें रात में आराम की नींद आएगी.

दिनचर्या को बनाए रखना, स्वस्थ भोजन करना, समय पर सोना और पर्याप्त सोना मूल बातें हैं. इसके साथ एक परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ टहलना चाहिए, चाहे वह घर का छत ही क्यों न हो. वर्तमान में जीने और साकारत्मक मानसिक गतिविधियों में रहने से खुद की और बच्चों की इस आपदा से लड़ने की मानसिक क्षमता विकसित होगी. सप्ताहांत पर बोर्ड गेम खेलें और खाली समय में उन्हें कला और शिल्प सीखने का अवसर दें.

भले ही लोग इन दिनों एक-दूसरे से नहीं मिल पा रहे हों, लेकिन जुड़े रहने के अन्य तरीके हैं. बच्चों से कहें कि वे अपने दोस्तों को अक्सर फोन करें, वीडियो चैट करें और अपनी सोच और विचारों का आदान-प्रदान करें. अगर ऑनलाइन लर्निंग का हर पहलू आपके लिए काम नहीं कर रहा है तो स्कूलों और शिक्षकों से भी बात करें. सक्रिय रहें और पर्याप्त रात्रि विश्राम करना सुनिश्चित करें.

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