साल 2004 में गर्मियों की एक शाम, निशा बोरा अपने ससुर द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक रात्रिभोज में गई थीं. इस कार्यक्रम में प्रतिष्ठित चित्रकार और मूर्तिकार जतिन दास भी मौजूद थे. बोरा के परिवार ने उनका परिचय दास से करवा दिया और बातचीत के दौरान दास ने उनसे पूछा कि क्या वो अगले कुछ दिन उनके सामान को ठीक करवाने में मदद करना चाहेंगी. 28 साल की इस महिला के पास कुछ दिनों का समय था और उसने सोचा कि "एक शानदार कलाकार के साथ काम करना किसी सम्मान" सा होगा और उन्होंने खुशी खुशी हां कर दी. उनके उत्साह का कारण ये भी था कि वो दिग्गज अदाकारा नंदिता दास के पिता भी थे.

दास के घर काम पर गईं बोरा का पहला दिन बिना किसी घटना के गुजर गया. एक ओर दास का बच्चा रो रहा था और निशा चीजों को व्यवस्थित करने में लगी थीं और दास "ओडिशा में अपने आर्ट स्कूल के लिए अपने बड़े सपनों" के बारे में बता रहे थे. जब वो जा रही थीं तो दास ने उन्हें विदेश में अपने सोलो (अकेले का) शो का एक पोस्टर और पंख परियोजना पर लिखी अपनी दस्तखत की हुई किताब गिफ्ट की- हाथ के पंखों का उनका कलेक्शन. बोरा ने अगले दिन दक्षिण दिल्ली में स्थित दास के स्टूडियो का दौरा किया, जिसे उन्होंने "रचनात्मक ऊर्जा से घिरा हुआ एक अद्भुत स्थान" बताया था. वो शराब पी रहे थे. बोरा ने साथ शराब पीने के दास के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया.

अचानक से दास ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की. पहले तो वो उनसे बच के निकल गईं, लेकिन दूसरी बार दास ने उन्हें पकड़ लिया और उनके होठों को चूम लिया. बोरा ने उन्हें धक्का दिया. उन्होंने कहा, “मान भी जाओ, बहुत मजा आएगा.” बोरा के प्रतिरोध से दास व्यग्र हो गए. बोरा ने अपना बैग उठाया ओर तेजी से घर की ओर निकल गईं. कुछ दिनों बाद बोरा के पास नंदिता दास का फोन आया. नंदिता ने कहा कि उनका नंबर उनके पिता ने उन्हें दिया है. दास के पिता ने कहा था कि बोरा उन्हें एक "युवा, महिला सहायक" ढूंढने में मदद कर पाएंगी. याद करते हुए बोरा कहती हैं कि उन्होंने बड़ी मुश्किल से लड़खड़ाते हुए नंदित से कहा कि वो ये काम नहीं कर पाएंगी.

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