लगभग 40-45 साल की थुलथुल जिस्म की सुमित्रा पिछले 15-20 मिनट से राजकंवर के फ्लैट की कालबेल बजा रही थी. जब दरवाजा नहीं खुला तो वह परेशान हो गई. फिर थकहार कर वहीं बैठ गई. वह झल्लाते हुए आश्चर्य से दरवाजे की तरफ देख रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि एक बार कालबेल बजाने पर दरवाजा खोल देने वाली राजकंवर मेमसाहब दरवाजा क्यों नहीं खोल रहीं. जबकि फ्लैट के अंदर गूंजती कालबेल की आवाज उसे बाहर भी सुनाई दे रही थी.

बमुश्किल कमर पर हाथ रख कर खड़ी हुई सुमित्रा ने एक बार फिर दरवाजा खुलवाने की कोशिश में दरवाजे को हाथ से जोर से पीटा. इतना ही नहीं, उस ने मेमसाहब का नाम ले कर भी दरवाजा खोलने को कहा. लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. सुमित्रा राजकंवर नागर के यहां खाना बनाने, कपड़े धोने से ले कर सभी घरेलू कामकाज करती थी.

जिस फ्लैट की हम बात कर रहे हैं, वह कोटा से लगभग 100 किलोमीटर दूर शहरनुमा कस्बे इटावा की सरोवर कालोनी में स्थित स्थानीय राजकीय सीनियर सेकेंडरी स्कूल की व्याख्याता राजकंवर नागर का था, जहां वह अपने पति कौशल किशोर और 6 वर्षीय बेटे उदित के साथ किराए पर रह रही थीं.

उस दिन मंगलवार था और तारीख थी 4 सितंबर. सुबह के करीब 8 बज चुके थे. जब सुमित्रा रोजाना की तरह राजकंवर के फ्लैट पर पहुंची थी. उस तिमंजिला इमारत में राजकंवर दूसरी मंजिल के आखिरी ब्लौक में रहती थीं. सुमित्रा राजकंवर की रोजमर्रा की दिनचर्या से भलीभांति वाकिफ थी.

सुबह जिस समय सुमित्रा काम करने के लिए फ्लैट पर पहुंचती थी, राजकंवर ब्रेकफास्ट कर चुकी होती थीं और स्कूल जाने के लिए तैयार मिलती थीं. बेटे उदित को भी स्कूल जाना होता था, इसलिए वह भी उन के साथ जाने को तैयार हो चुका होता था. आमतौर पर दरवाजा राजकंवर ही खोलती थीं.

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