56 साल की कविता शर्मा दिल्ली के साधारण से महल्ले में दो कमरे के मकान में रहती हैं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी है और वह अपने बेटेबहू के साथ रहती हैं. उन की एक 2 साल की पोती भी है. वह पूरा दिन या तो पोती की देखभाल में या फिर बालकनी में बाहर आतेजाते लोगों को देखते हुए बिताती है. कभीकभी घर के छोटेमोटे काम में अपनी बहू का भी हाथ भी बंटाती रहती हैं. साथ ही दूसरों से बहू की शिकायतें करने या उस से झगड़ने में भी उन का समय जाता है. इस के अलावा उन की जिंदगी में और कोई खास काम नहीं.
आजकल उन की बहू अकसर मायके जाने लगी है. पोती भी साथ चली जाती है और बेटा भी कई बार बहू के घर चला जाता है. ऐसे में कविता अपने घर में बिल्कुल अकेली रह जाती हैं और यह अकेलापन उन्हें खाने को दौड़ता है. वह बालकनी से बाहर झांकती रहती हैं या सोती रहती हैं. बाकी उन के पास करने को कुछ भी नहीं होता. क्योंकि इस समय बहू नहीं है तो बहू की शिकायतें कैसे करें और उस से झगड़ा भी कैसे करे? बस महल्ले वालों को जरूर बहू की शिकायत करती नजर आती हैं कि जब देखो बहू मायके चली जाती है.
इधर उन्हीं की उम्र की एक महिला प्रज्ञा राज भी उसी मोहल्ले में रहती हैं. उन की आर्थिक स्थिति भी लगभग समान ही है. वह बिल्कुल अकेली हैं लेकिन फिर भी बहुत खुश रहती हैं. ना किसी की शिकायतबाजी और न लड़ाईझगड़ा. उन के पास समय ही नहीं होता कि वह यह सब कुछ करें. न ही वह बालकनी में ताकझांक का काम करती है. वह अपने में बिजी रहती हैं. उन के पास बहुत काम है. ऐसा नहीं है कि वह जौब करती हैं. लेकिन सुबह से शाम तक उन का एक रूटीन बना हुआ है.
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