उपहार ऐसा शब्द है जिसे सुन हम आज भी उत्साहित हो जाते हैं. बचपन में जब हमारे सगेसंबंधी दीवाली में हमारे लिए पटाखे, खिलौने व कपड़े लाया करते थे तो हम खुशी से झूम उठते थे. आज फर्क मात्र बच्चों की तरह खुशी जाहिर न करने का है.

वहीं, जब हम किसी दोस्त व सगेसंबंधियों के लिए तोहफे खरीदते हैं तो यही उम्मीद करते हैं कि वे बहुत खुश होंगे. पर कभीकभी यही तोहफे रिश्तों में खटास भी ले आते हैं. आखिर जब उपहार रिश्तों में स्नेह के प्रतीक हैं तो यह कड़वाहट कैसे और क्यों घोल जाते हैं? स्नेह आजकल दिखावे की जगह लेता जा रहा है जिस से न सिर्फ पैसों की बरबादी होती है बल्कि यह दिखावा रिश्तों की मिठास को भी खत्म करता जा रहा है.

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बोझ न बनने दें

उपहार देना व लेना हर स्थान का चलन है परंतु कभीकभी यह प्रथा रिश्तों पर बोझ भी बन जाती है. ऋचा की सहेली सलोनी तो बहुत ही स्नेही लड़की है परंतु जब भी वह ऋचा के घर आती है, ऋचा व बच्चों के लिए खूब महंगेमहंगे तोहफे ले आती है. शुरूशुरू में ऋचा ने उसे समझाया कि हर बार तोहफा ले कर आने की जरूरत नहीं है और विशेषकर इतने महंगे तोहफे तो वह कतई न लाए. लेकिन सलोनी उस की एक न सुनती.

सलोनी सदैव यही दलील देती कि वह बच्चों की मौसी है और बच्चों को उपहार देने का उस का पूरा हक है. ऋचा जानती थी कि सलोनी और उस की आर्थिक स्थिति में जमीनआसमान का फर्क था परंतु फिर भी उस ने हमेशा यही सोचा कि दोस्ती में इन सब बातों के लिए कोई जगह नहीं होती है परंतु अब उसे सलोनी का इतने महंगे तोहफे लाना बोझ लगने लगा.

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