हाल के कुछ सालों में धर्म और सत्ता के पक्ष में धड़ाधड़ फिल्में बनीं. इन फिल्मों ने कमाई भले नहीं की लेकिन समाज को बांटने व सत्ताधारी पार्टी को चुनावी फायदा पहुंचाने की भरसक कोशिश की. इन फिल्मों को सरकार से सब्सिडी ही नहीं मिली बल्कि कई मौकों पर सत्ता पर काबिज राजनेताओं ने इन का सीधा प्रचार भी किया. सरकार के सीधे दखल से बौलीवुड ने राजनीतिक प्रचार तो किया लेकिन वह पूरी तरह बरबाद होने की कगार पर पहुंच गया है. सिनेमा के विकास के लिए असल में तो दर्शक चाहिए होते हैं लेकिन यदि लोकाश्रय न मिल रहा हो और फिल्में केवल राजाश्रय मिलने वाले शहद पर बनें तो चिपचिप कर छत्तों में मर जाएंगी.
पहले कुछ फिल्मकार सरकार से धन ले कर अच्छी फिल्में भी बनाते रहे हैं मगर ऐसा करते समय कहीं न कहीं वे फिल्में एक खास विचारधारा की पोषक होती हैं, जिन से सिनेमा व समाज दोनों का नुकसान होता है. यह सत्य है कि सब्सिडी के नाम पर सरकार जो धन देती थी उस के पीछे उस की अपनी एक सोच तो रहती थी पर वह ज्यादा ढोलबजाऊ नहीं थी. राजाश्रय के बल पर बनने वाली तमाम फिल्मों को दर्शक सिरे से नकार रहे हैं.
ऐसी फिल्मों को नकारे जाने के बाद भी इस तरह की फिल्में धड़ल्ले से बन रहीं हैं और हर चुनावी मौसम में प्रदर्शित भी हो रही हैं. आम चुनाव की तैयारियां सिर्फ चुनाव आयोग या राजनीतिक पार्टियां ही नहीं करतीं बल्कि फिल्म इंडस्ट्री भी करती है. ये तैयारियां पिछले 3 वर्षों से जोरों पर थीं जिस के परिणामस्वरूप इस साल कोई दर्जनभर ऐसी हिंदी फिल्में बौलीवुड से रिलीज हुईं जो खालिस राजनीति पर आधारित थीं. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही सिनेमा का भी कट्टर धर्मपंथियों की गिरफ्त में जाना कतई हैरानी की बात नहीं है बल्कि ऐसा न होता तो जरूर हैरानी होती क्योंकि वे प्रचार का कोई जरिया नहीं छोड़ते.
आम चुनाव पर राजनीतिक फिल्मों के प्रभाव को आंकने व नापने के लिए हालांकि थोड़ा पीछे ?ांकना जरूरी है कि वे फिल्में राजनीतिक नेताओं और सरकार से आम लोगों के मन की बात कैसे खूबसूरती से कह जाती थीं कि कोई फसाद या विवाद खड़ा नहीं होता था, लेकिन उस से पहले एक ?ालक हालिया प्रदर्शित फिल्मों की देखें तो लगता है कि हिंदुत्व पर बनी अधिकतर फिल्में फ्लौप भले ही रही हों लेकिन उन के पीछे एक एजेंडा है और एक बड़ा प्रोपगंडा भी.
बीती 23 फरवरी को ‘आर्टिकल 370’ फिल्म रिलीज हुई. नाम से ही जाहिर है कि फिल्म जम्मूकश्मीर से आर्टिकल 370 को बेअसर करने के मोदी सरकार के फैसले के प्रचार के लिए बनी है. ‘आर्टिकल 370’ को बनाने वाले निर्माता आदित्य धर और निर्देशक आदित्य सुहास जाम्भले हैं जिन्होंने 2019 में ‘उरी द सर्जिकल स्ट्राइक’ फिल्म बना कर आम चुनाव में भाजपा को मजबूती देने का काम किया था. एक चेहरा ‘रामायण’ सीरियल वाले राम यानी अरुण गोविल का है जो मेरठ से भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. फिल्म में वे भारत के प्रधानमंत्री की भूमिका में हैं.
‘आर्टिकल 370’ का असली प्रमोशन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 फरवरी को ही जम्मू से एक चुनावी सभा के दौरान कर दिया था. उन्होंने फिल्ममेकर्स और कलाकारों की तरफ इशारा करते कहा था कि अब दुनियाभर में आप की जयजयकार होने वाली है. अच्छा है कि लोगों को सही जानकारी मिलेगी. फिल्म की लागत में राजाश्रय का कितना योगदान था, इस के कोई खास माने नहीं क्योंकि निर्माताओं का अपना निजी मकसद भी 370 से ताल्लुक रखते तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करना और नरेंद्र मोदी की इमेज को चमकाना था. आजकल फिल्मों के प्रमोशन में कलाकारों की भागीदारी आम बात और व्यावसायिक जरूरत है. आर्टिकल 370 के मद्देनजर यह भूमिका नरेंद्र मोदी ने क्यों निभाई, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि वे अपने इस फैसले को ले कर आशंकित और एक हद तक भयभीत भी थे, इसलिए आम लोगों की ज्यादा से ज्यादा सहमति बटोर रहे थे.
6 मार्च को तेलंगाना के संगारेड्डी की एक चुनावी रैली में भी उन्होंने कहा कि ‘आर्टिकल 370’ फिल्म लोकप्रिय हो रही है. यह पहली बार है कि लोग इस तरह की फिल्मों की बदौलत ऐसे मुद्दों में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. तेलंगाना की रैली में नरेंद्र मोदी के ‘आर्टिकल 370’ की तारीफ के बाद पूरा भगवा गैंग ‘आर्टिकल 370’ के प्रमोशन के लिए पिल पड़ा. रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी इस के प्रमोशन में दो बोल कहे तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने इसे टैक्सफ्री करते अपनी कैबिनट के साथियों के साथ इसे देखा और आम जनता से भी इसे देखने की अपील की.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु साय ने भी फिल्म को टैक्सफ्री कर दिया. टैक्सफ्री होने से यह लगभग मुफ्त के भाव पड़ी. लिहाजा, ठीकठाक पैसा कमा ले गई जिसे अप्रत्यक्ष राजाश्रय कहा जा सकता है. अच्छा तो यह रहा कि किसी ने यह नहीं कहा कि आओ ‘आर्टिकल 370’ देखो और इंटरवल में समोसा, पौपकौर्न, कौफी और कोल्डड्रिंक्स मुफ्त में खाओपियो.
फिल्मों का भगवाकरण
पिछले कुछ सालों से कट्टरपंथी फिल्मों के नाम के आगे फाइल और स्टोरी शब्द जोड़ने का भी अजीबोगरीब रिवाज शुरू हुआ है, मसलन ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरला स्टोरी’ और ‘बस्तर : द अनटोल्ड स्टोरी’. इन फाइल्स और स्टोरी में हिंदुत्व और मोदी सरकार का जम कर बखान होता है. इन्हें देख कर लगता ऐसा है कि हिंदू जैसी दीनहीन, शोषित और कायर जाति दुनिया में कोई और है ही नहीं और हिंदू इतना कमजोर व बेवकूफ है कि छोटेमोटे गुंडों से ले कर संगठित गिरोहों के आगे घुटनों के बल आते शीश ?ाका देता है, कि आओ भाइयो, अत्याचार करो, हिंसाबलात्कार और लूटपाट और जो भी बन पड़े, करो ताकि हमारी सरकार बनी रहे.
इन ‘फाइलों’ का असल मकसद दूसरे धर्मों, खासतौर से इसलाम, को बदनाम करना रहता है. कहने का यह मतलब नहीं कि मुसलमान या दूसरे कोई दूध के धुले होंगे लेकिन तथ्यों, जो होते ही तथाकथित हैं, को इतना तोड़मरोड़ कर इस तरह की फिल्मों में पेश किया जाता है कि देखने वाला पूरी मुसलिम कौम, समुदाय या धर्म से ही नफरत करने लगता है. धर्म से नफरत हर्ज की बात नहीं क्योंकि सभी धर्म एकजैसे हैं जो अपने भक्त लोगों से पैसा ऐंठते रहने के लिए उन्हें पिछड़ा, अंधविश्वासी और अक्ल से पैदल बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.
धार्मिक नफरत का वैचारिक फिल्मीकरण कोई सार्थक मैसेज नहीं देता बल्कि लोगों में नफरत फैलाता है. विवेक अग्निहोत्री की ‘कश्मीर फाइल्स’ के एक दृश्य में हिंदूवादी नारा लगाते दिखाए गए हैं कि गद्दारों को गोली मारो. ऐसे दृश्यों को इतनी चालाकी से दिखाया जाता है कि आम दर्शक आतंकवादियों और मुसलमानों में कोई फर्क नहीं कर पाता और फिर राह चलता मुसलमान उसे राक्षस लगने लगता है. गद्दारों के माथे पर कोई निशान थोड़े ही होता है.
मार्च 2022 में प्रदर्शित ?ाठ का पुलिंदा यह फिल्म किसी चुनावी हथकंडे से कम नहीं थी. पिछले 3 सालों से ऐसी फिल्में योजनाबद्ध तरीके से एक नियमित अंतराल में प्रदर्शित की जा रहीं हैं जिन का मकसद माहौल को बनाए रखना होता है. जम्मूकश्मीर से पंडितों के पलायन का पूरा सच क्या है, यह कोई नहीं बता सकता लेकिन ‘कश्मीर फाइल्स’ का सच काल्पनिक था, यह हरकोई जानता है. उसे सच के रूप में प्रचारित किया गया तो देश में जगहजगह सांप्रदायिक माहौल बिगड़ा. मध्य प्रदेश के 2022 के खरगौन दंगों का तो जिम्मेदार ही इस फिल्म को माना गया था. 1947 से पहले अंगरा राजाओं के जमाने में अल्पसंख्यक वहां के बहुसंख्यकों के साथ काम कर रहे थे, यह इतिहास अब कोई नहीं बताता.
‘केरल स्टोरी’ को भी एक खास मकसद से ही बनाया गया था कि कैसे गैरमुसलिम लड़कियां आईएसआईएस की गिरफ्त में फंसाई जाती हैं. इस फिल्म पर भी मुकम्मल बवाल हुआ था और मेकर्स ने बाद में यह स्वीकार लिया था कि 32 हजार लड़कियों का धर्म परिवर्तन हुआ, यह गलत है, बल्कि फिल्म में 3 लड़कियों की कहानी है. फिर भी रिलीज के बाद देशभर के लोगों ने मान लिया कि औरतों को जबरन मुसलमान बना कर उन्हें कट्टरपंथी भी बना दिया जाता है. लव जिहाद पर विवाद और फसाद खासतौर से सोशल मीडिया पर आएदिन होते रहते हैं जिन पर कहा जाता है कि भोलीभाली हिंदू लड़कियों को मुसलिम लड़के नाम और पहचान बदल कर अपने जाल में फंसाने के साथ उन का शारीरिक शोषण करते हैं.
प्रचार में इस्तेमाल
भाजपा को ऐसे मुद्दों से चुनावी फायदा यह होता है कि हिंदू डर कर उसे वोट देते हैं. उन का ध्यान फिर खुद से जुड़े मुद्दों, जैसे महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार वगैरह पर नहीं जाता. दूसरा फायदा जो आसानी से किसी को दिखता नहीं, वह यह है कि चंद उदाहरणों की आड़ में युवतियों पर तरहतरह के प्रतिबंध पेरैंट्स लगाने लगते हैं कि यह मत करो वह मत करो, यह मत पहनो वह मत पहनो, घर में रहो आदि. यह पारिवारिक आचार संहिता दरअसल धर्म द्वारा निर्मित और निर्देशित है कि औरतों को कैसे मर्दों की सरपरस्ती में रहना चाहिए जो ‘केरल स्टोरी’ जैसी फिल्मों से लड़कियों की आजादी छीनने में बतौर हथियार इस्तेमाल की जाती हैं और प्रसंगवश हिंदू लड़कों को शह देती है कि वे पत्नी को पांव की जूती सम?ाने में कोई संकोच न करें क्योंकि पुरुष होने के नाते वह स्त्री को विधर्मियों से बचाता है. यह नेक काम फिर हिंदूवादी संगठनों के गुर्गे वैलेंटाइन डे जैसे मौकों पर सार्वजनिक रूप से करते नजर आते हैं. चुनाव के दिनों में सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों के जरिए हिंदुत्व का प्रचार बहुत आम है.
यह ट्रैंड भी है कि इन एजेंडाधारी फिल्मों के आगे निर्देशक जानबू?ा कर ‘अनटोल्ड स्टोरी’ या ‘फाइल’ जोड़ देता है ताकि दर्शकों को यह छिपा रहस्य जैसा लगे. सुदीप्तो सेन ने ‘केरल स्टोरी’ के बाद एक और फिल्म ‘बस्तर : द अनटोल्ड स्टोरी’ बना डाली जो कहने को नक्सलवाद पर आधारित थी लेकिन उस में बताया यह गया है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद नक्सली हिंसा थमी है और बस्तर में धड़ाधड़ विकास हो रहा है.
जाहिर है, कुछ निर्मातानिर्देशकों ने जैसे नरेंद्र मोदी की इमेज चमकाने का ठेका ले रखा है जिस के एवज में उन्हें कोई न कोई तो आश्रय मिलता ही होगा. अच्छा तो अभी तक यह है कि उन्होंने या किसी और ने नोटबंदी के फायदे गिनाती फिल्म नहीं बना डाली. कोई आश्चर्य नहीं कि ‘ब्रिलियंट स्टोरी औफ नोटबंदी’ नामक फिल्म बना डाली जाए जिस में लाइनों में लगे हिंदू देश के लिए श्रमदान करते हुए कहे जाएं.
इन फिल्मों का असर अभी खत्म नहीं हुआ था कि चुनावों के मद्देनजर ऐसी ही कुछ और फिल्में हाल ही में प्रदर्शित हुई हैं और कुछ जल्द ही होने वाली हैं. 19 जनवरी को प्रदर्शित हुई रवि जाधव द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मैं अटल हूं’ अटल बिहारी वाजपेयी की बायोपिक के सिवा कुछ नहीं है लेकिन इस में कोशिश यह की गई है कि कारगिल युद्ध और पोखरन परमाणु परीक्षण जैसे प्रसंग दिखा कर पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा नेता अटल बिहारी के नाम पर माहौल बनाया जा सके. यह और बात है कि वह माहौल बना नहीं और फिल्म लागत भी नहीं निकाल पाई. बेहतर ऐक्ंिटग के लिए पहचाने जाने वाले पंकज त्रिपाठी अटल बिहारी वाजपेयी के रोल में तनिक भी नहीं जंचे और न जाने क्यों किसी भाजपा नेता ने किसी पब्लिक मीटिंग या रैली में अपने पितृपुरुष की जिंदगी पर बनी इस फिल्म का जिक्र तक नहीं किया.
फसाद व विवाद
22 मार्च को रिलीज हुई ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ का हश्र तो इतना बुरा हुआ कि फिल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता रणदीप हुड्डा की जायदाद तक बिक गई. सावरकर भगवा गैंग के आदर्श हैं जिन्हें ले कर, खासतौर से महाराष्ट्र में, आएदिन विवाद होना आम बात है. फिल्म बनाने की मंशा अगर पाकसाफ होती तो रणदीप हुड्डा की प्रौपर्टी बिकने से बच सकती थी लेकिन कांग्रेस को जलील करने के चक्कर में वे गच्चा खा गए. ‘कालापानी के लिए किसी कांग्रेसी को सजा क्यों नहीं हुई’ जैसा सवाल उठाना एक बेतुकी और गैरजरूरी बात थी. महात्मा गांधी की अहिंसा को कठघरे में खड़ा करना भी उन्हें महंगा पड़ गया.
एक फिल्म जो भारी फसाद और विवाद पैदा कर सकती है वह है ‘जहांगीर नैशनल यूनिवर्सिटी’ जिस में जेएनयू की कथित देशविरोधी गतिविधियों को उजागर करने की बात निर्देशक विनय शर्मा कह रहे हैं. यह फिल्म 5 अप्रैल को रिलीज होनी थी लेकिन किन्हीं वजहों के चलते नहीं हो पाई. उम्मीद है कि यह वोटिंग के किसी भी एक खास चरण के दौरान रिलीज हो सकती है. फिल्म कैसी होगी, इस का अंदाजा उस के पोस्टर से ही लगाया जा सकता है जो भगवा रंग का है. भगवा रंग के नक्शे पर फिल्म की टैगलाइन है- ‘क्या एक एजुकेशनल यूनिवर्सिटी देश को तोड़ सकती है.’
फिल्म में उर्वशी रौतेला, पीयूष मिश्रा, सिद्धार्थ बोडके, रश्मि देसाई, विजय राज और अतुल पांडेय सहित भाजपा सांसद रहे अभिनेता रवि किशन जैसे कलाकारों की भीड़ है. फिल्म कैसी होगी और इस के प्रदर्शन पर कैसेकैसे हंगामे होंगे, इस का अंदाजा जानेमाने लेखक इरफान हबीब के इस ट्वीट से लगाया जा सकता है कि जेएनयू को ले कर एक सनक रही है. ऐसा सिर्फ इसलिए कि यह संस्थान सोचने की आजादी देता है और विचारों व संस्कृतियों का सच्चा मेल यहां होता था. यही एक वजह है कि इस प्रमुख संस्थान को हर दिन निशाना बनाया जा रहा है और इसे कमजोर किया जा रहा है.
फिल्म कितनी भड़काऊ और उत्तेजक होगी, इस का अंदाजा उस के ट्रेलर से लग जाता है जिस में भारत तेरे टुकड़े होंगे… और जय श्रीराम के नारे छात्रों द्वारा लगाए जा रहे हैं. निर्देशक की मंशा जेएनयू को बदनाम कर भगवा गैंग को चुनावी फायदा पहुंचाने की है बशर्ते अगर यह वक्त पर रिलीज हो पाई तो. जेएनयू के छात्र अपने संस्थान के बारे में गलतबयानी और गलत दिखाना बरदाश्त कर पाएंगे, ऐसा लगता नहीं.
मंडी से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहीं अभिनेत्री कंगना रनौत निर्देशित और अभिनीत फिल्म ‘इमरजैंसी’ भी रिलीज के लिए अटकी हुई है जिस में उन्होंने इंदिरा गांधी का किरदार निभाया है. यह फिल्म काफी सुर्खियां बटोर चुकी है इसलिए नहीं कि इस में कंगना हुबहू इंदिरा गांधी जैसी दिखती हैं बल्कि इसलिए कि इंदिरा गांधी आज भी प्रासंगिक हैं और भगवा गैंग जबतब इंदिरा गांधी व इमरजैंसी पर हायहाय करता रहता है. उस के लिए यह वोटकमाऊ मुद्दा शुरू से ही रहा है. कट्टर हिंदूवादी, बड़बोली कंगना से यह उम्मीद करना बेकार की बात है कि इस में उन्होंने इंदिरा गांधी के किरदार से न्याय किया होगा. उन का मकसद तो जैसे भी हो नरेंद्र मोदी को खुश करना रहता है जो ‘इमरजैंसी’ में भी दिखना तय है.
हिंदूवादी और मोदीवादी फिल्मों को तो सैंसर बोर्ड तुरंत रिलीज कर देता है लेकिन उस ने ‘द साबरमती रिपोर्ट’ को लटका कर रखा है. एकता कपूर द्वारा निर्मित और रंजन चांदेल द्वारा निर्देशित इस फिल्म को 3 मई को प्रदर्शित होना था लेकिन सैंसर बोर्ड ने कुछ दृश्यों पर एतराज जताते प्रदर्शन पर रोक लगा दी है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक गोधरा कांड के बाद हुए दंगों पर बनी इस फिल्म में कुछ दृश्य ऐसे हैं जिन से एक वर्ग विशेष की भावनाएं आहत हो सकती हैं और आदर्श आचार संहिता भी कहीं न कहीं आड़े आ रही है. मुमकिन है इस फिल्म में एकता कपूर ने नरेंद्र मोदी का महिमामंडन न किया हो और राजधर्म निभाने न निभाने पर जोर दे दिया हो. अब वह वर्ग विशेष जिस की भावनाएं भड़कने का डर था वह हिंदू है या मुसलमान, इस का पता तो फिल्म के रिलीज होने के बाद ही चलेगा जिस में लीड रोल में ‘12वीं फेल’ से चर्चित हुए ऐक्टर विक्रांत मैसी हैं.
फिल्म के जरिए हिंदुत्व का विस्तार
फिल्मों के जरिए हिंदुत्व का विस्तार केवल बौलीवुड से आ रही हिंदी फिल्मों तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि यह दक्षिण में भी पैर पसार रहा है जिस के अधिकतर कर्ताधर्ता हिंदूवादी ही हैं. आंध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ विधानसभा के भी चुनाव हैं जहां भगवा गैंग कुछ हाथ न लगते बौखलाया हुआ है. 15 मार्च को तेलुगू में एक हाहाकारी फिल्म रिलीज हुई ‘रजाकार – द साइलैंट जिनोसाइड औफ हैदराबाद’ जिस के निर्माता गुडडू नारायण रेड्डी हैं. खास बात यह कि वे 3 साल पहले तक कांग्रेसी थे लेकिन अब भाजपाई नेता हैं. ‘रजाकार…’ फिल्म हैदराबाद के ऐतिहासिक हिंदू नरसंहार पर आधारित है. रजाकार निजाम की सेना को कहा जाता था जो आम जनता पर बेइंतिहा जुल्म ढाती थी, उस में 2 लाख तक सैनिक हुआ करते थे.
‘केरल स्टोरी’ और ‘कश्मीर फाइल्स’ की तरह यह फिल्म भी तथ्यों को ले कर शक के दायरे में है. आजादी के बाद निजाम हैदराबाद मीर उस्मान अली खान ने अपनी रियासत के विलय से इनकार कर दिया था, नतीजतन तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने जबरन रियासत का विलय भारत में करवाया था.
इस के बाद काफीकुछ गड्डमड्ड है कि हिंदूमुसलिम दंगे कितने हुए और जनता व रजाकारों की लड़ाई में कितनी निर्ममता और नृशंसतापूर्वक लोगों का कत्लेआम किया गया पर ये लोग सिर्फ हिंदू ही थे और रजाकारों में सिर्फ मुसलमान ही थे, इस पर इतिहास विरोधाभासी है. रजाकार के रिलीज के बाद मुसलिम नेताओं ने इस की आलोचना की और इसे भाजपा व आरएसएस का एजेंडा बताया तो गर्मागर्मी बढ़ी भी थी. लेकिन इस फिल्म के टीजर और पोस्टर लौंच होने जैसे मौकों पर कंगना रनौत सहित बंदी संजय कुमार, जीतेंद्र रेड्डी और सी विद्यासागर जैसे छोटेबड़े भाजपा नेताओं का मौजूद होना व जय श्रीराम के नारे लगाना इलैक्शन ऐक्शन ही था.
फिल्मों के जरिए अपने पक्ष में माहौल बनाना कोई नई या हैरानी की बात नहीं है लेकिन मोदीकाल में, उन के मुताबिक, फिल्मों की तादाद बढ़ी है और उन की मंशा भी जानबू?ा कर नहीं छिपाई जाती. यह अघोषित इमरजैंसी है जो कला और कलाकारों दोनों का नुकसान कर रही है पर सब से बड़ा नुकसान दर्शकों का हो रहा है जिन से किसी को कोई सरोकार नहीं. दर्शक भी इन फिल्मों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रहे क्योंकि ये हिंदुत्व की डौक्यूमैंट्री ज्यादा है. वरना तो राजनीति पर बनी फिल्मों की एक लंबी फेरहिस्त है जिन्होंने बौक्सऔफिस पर तो रिकौर्ड बनाए ही, साथ ही, दर्शकों को राजनीति के दावपेंचों से रूबरू भी कराया.
‘आज का एमएलए’, ‘इंदु सरकार’, ‘किस्सा कुरसी का’, ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’, ‘राम अवतार’, ‘राजनीति इन्कलाब सरकार इन्कलाब’, ‘आरक्षण’, ‘नायक’ जैसी सैकड़ों फिल्में मिसाल हैं जिन में कोई धार्मिक या वैचारिक पूर्वाग्रह नहीं था बल्कि ये फिल्में सार्वजनिक समस्याओं से कनैक्ट थीं. इंदिरा गांधी की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘आंधी’ में एक अलग फ्लेवर था जो एक ऐसी नेत्री की कहानी थी जो अपने पति और परिवार से तालमेल नहीं बैठा पाती. लेकिन अब इफरात से हो यह रहा है कि फिल्मकारों को हर तरह का आश्रय सरकारें दे रही हैं जिस से वे मुद्दे की यानी आम जनता की बात न करें. फिल्मों से जुड़ी एजेंसियों और संस्थानों के भगवाकरण का सिलसिला भी नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही शुरू कर दिया था. बिलाशक, ऐसा पहले भी होता था लेकिन एक दायरे के अंदर होता था.
जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और कम्यूनिस्ट सरकारें थीं तब नाट्य संस्था ‘इप्टा’ के जलवे थे. अब इस संस्था का कोई नाम ही नहीं लेता. इतना ही नहीं, कम्यूनिस्ट सरकार के वक्त श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, कुंदन शाह, सईद मिर्जा जैसे फिल्मकारों को वहां की सरकार के अलावा पश्चिम बंगाल के बड़ेबड़े उद्योगपति फिल्में बनाने के लिए पैसा दिया करते थे जोकि अब बंद हो गया और श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने फिल्में बनाना बंद कर दीं.
मजेदार बात यह है कि आज भी सब से अधिक सब्सिडी पश्चिम बंगाल सरकार ही दे रही है. श्याम बेनेगल व गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार किस तरह की फिल्में बना रहे थे, वह किसी से छिपा नहीं है. मगर उन की फिल्में दर्शकों को पसंद आ रही थीं क्योंकि वे फिल्म बनाते समय दर्शकों की पसंद का भी खयाल रखते थे. कहीं से धन मिल गया, इसलिए स्तरहीन फिल्में बनाना इन का मकसद कभी नहीं रहा. लेकिन वर्तमान समय में स्थितियां बदल गई हैं. अब सिनेमा या समाज के प्रति समर्पित फिल्मकार नहीं हैं. इन दिनों तो हर फिल्मकार येनकेनप्रकारेण अपनी जेब भरने की फिराक में लगा हुआ है. परिणामतया वह ऐसा सिनेमा बना रहा है जिसे दर्शक सिरे से नकार रहा है और सिनेमा खत्म होता जा रहा है पर इस की चिंता न सरकार को है और न ही फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों को.
फिल्मों पर सरकारी छूट
भारत देश में सब से पहले महाराष्ट्र सरकार ने मराठीभाषी फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी देना शुरू किया था. उस वक्त हर मराठी फिल्म को 25 लाख रुपए का अनुदान मिल रहा था. देखते ही देखते ढेर सारी मराठी फिल्में बनने लगीं और बहुत जल्द लोगों ने कहना शुरू किया कि मराठी सिनेमा का पतन शुरू हो गया. उस वक्त फिल्म निर्माता की सोच सिर्फ इतनी होती थी कि कम से कम बजट में फिल्म बना कर सरकार से 25 लाख रुपए का अनुदान ले कर कुछ रकम अपनी जेब में डाल ली जाए. यानी, यह एक अलग तरह का व्यवसाय शुरू हो गया था. स्तरहीन मराठी फिल्में बनने लगी थीं जिस का विरोध मराठी फिल्म इंडस्ट्री के अंदर ही पनपा था. तब 2014 में महाराष्ट्र सरकार की नई फिल्म पौलिसी आई और सब्सिडी का पैमाना तय किया गया जिस से मराठी सिनेमा को फायदा हुआ.
फिलहाल महाराष्ट्र सरकार मराठी भाषा की फिल्मों को अलगअलग कैटेगरी के अनुसार 30 व 40 लाख रुपए की सब्सिडी, फिल्मसिटी स्टूडियो में शूटिंग करने पर 50 प्रतिशत छूट, इंटरटेनमैंट टैक्स में पूरी राहत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर डेढ़ लाख रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में दे रही है. इतना ही नहीं, 2023 में महाराष्ट्र सरकार पुरस्कृत फिल्मों को एक करोड़ रुपए तक सब्सिडी देने का प्रस्ताव ले कर आई थी, यह लागू हुआ या नहीं, पता नहीं. मगर मार्च माह में ‘इम्पा’ के साथ बातचीत में महाराष्ट्र सरकार ने सभी सरकारी इमारतों या प्रतिष्ठानों में शूटिंग के लिए कोई शुल्क न लेने की घोषणा की है. हर फिल्मकार इसे बहुत बड़ी राहत के तौर पर देखता है.
एक वक्त वह था जब गुजरात में गुजराती फिल्मों का जलवा था. बेहतरीन से बेहतरीन फिल्में बन रही थीं पर अचानक वहां की सरकार ने 5 लाख रुपए सब्सिडी देनी शुरू की थी, तब वहां भी सब्सिडी का ऐसा व्यापार शुरू हुआ कि वहां का गुजराती सिनेमा तबाह हो गया. पिछले कुछ वर्षों से गुजरात सरकार की फिल्म नीति में बदलाव आया और तब से अच्छी गुजराती फिल्में बनने लगी हैं.
सब्सिडी के लिए फिल्म निर्माण
मशहूर अभिनेता, निर्माता व निर्देशक तथा गुजरात सरकार की फिल्म नीति की कमेटी का हिस्सा रहे दीपक अंतानी से जब हम ने कहा कि राज्य सरकारों की ‘फिल्म सब्सिडी’ की नीति से सिनेमा, खासकर क्षेत्रीय सिनेमा, को नुकसान हो रहा है, फिल्म निर्माता सब्सिडी के चक्कर में फिल्म की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दे रहे तो दीपक अंतानी ने कहा, ‘‘कुछ हद तक यह सच है लेकिन हर इंडस्ट्री में अंतर रहता ही है. एक अंबानी की फैक्टरी है तो दूसरा आम पावरलूम है. इसी तरह सिनेमा जगत में भी है. कुछ निर्माता एक बड़े बजट के साथ फिल्म बनाते हैं. उन का टारगेट ‘सब्सिडी’ नहीं. कुछ निर्माता ऐसे भी हैं जो केवल सब्सिडी के लिए ही फिल्म बनाते हैं. उन्हें इस बात की चिंता रहती है कि उन की फिल्म रिलीज होगी या नहीं, दर्शक मिलेंगे या नहीं. उन का सारा जुगाड़ सब्सिडी पाने का ही होता है. वे तो जो पैसा जेब से डालते हैं, वह सारा पैसा सब्सिडी व फिल्म के दूसरे राइट्स से पाने की फिराक में ही रहते हैं. ऐसे फिल्मकार फिल्म के प्रचार व डिस्ट्रिब्यूशन पर पैसा खर्च नहीं करते.
‘‘कुछ फिल्मकार औसत दर्जे की फिल्म बनाते हैं. वे अपनी जेब से कुछ रकम डालते हैं. पब्लिसिटी पर भी कुछ खर्च करते हैं. फिल्म की कहानी वगैरह पर भी पैसा खर्च करने में यकीन रखते हैं. ऐसे निर्माता भी सब्सिडी पर निर्भर रहते हैं. फिर भी उन की फिल्म की मेकिंग व फिल्म की कहानी व विषय कुछ अच्छा रहता है. लेकिन इस तरह का सिनेमा ज्यादा लोगों तक पहुंच नहीं पाता. ओटीटी के आने से फिल्मकारों को एक नई दिशा मिल गई है लेकिन कुछ निर्माता व निर्देशक ऐसे भी हैं जोकि नियमित रूप से फिल्में बनाते हैं. उन के लिए सब्सिडी आय का एक हिस्सा मात्र होता है. कमाई के लिए उन की नजर मुख्यतया बौक्सऔफिस से होने वाली आय पर होती है.’’
पिछले 4-5 वर्षों से भाजपाशासित राज्यों की सरकारों के बीच फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने के नाम पर सब्सिडी/अनुदान देने की होड़ सी लगी हुई है. सब से अधिक अनुदान उत्तर प्रदेश की योगी सरकार दे रही है. इस के लिए सरकार ने फिल्म ‘बंधु’ संस्था बना रखी है. कभी इस संस्था के चेयरमैन राजू श्रीवास्तव थे. इस के साथ मशहूर गायिका मालिनी अवस्थी के पति आईएएस औफिसर अवनीश कुमार अवस्थी भी जुड़े हुए थे. 2022 से वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुख्य सलाहकार भी नियुक्त किए गए हैं.
फिल्म बंधु की वैबसाइट पर 80 फिल्मों की सूची दी गई है, जिन्हें वर्ष 2017 में अनुदान दिया गया, इस में रकम का भी जिक्र है कि किस फिल्म को कितनी रकम दी गई. वैबसाइट के अनुसार यह सूची 2017 तक की है. 2017 से 2023 की कोई सूची उपलब्ध नहीं है. इन 80 फिल्मों में से ‘जौली एलएलबी 2 (अक्षय कुमार), ‘मौम’ (बोनी कपूर), ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’ (अक्षय कुमार), ‘रेड’ (निर्माण- टीसीरीज व सलमान खान), ‘बरेली की बर्फी’ (निर्माण- विनीत जैन, टाइम्स ग्रुप), ‘कागज’ (सतीश कौशिक, जो कि हरियाणा सरकार की फिल्म नीति के चेयरमैन भी थे), ‘व्हाई चीट इंडिया’ (निर्माण- टीसीरीज) को छोड़ कर बाकी फिल्मों के लोगों ने नाम भी न सुने होंगे.
दूसरी बात जो बड़ी फिल्में हैं उन के निर्माण से जुड़े लोग अरबपति हैं और परोक्ष या अपरोक्ष रूप से भाजपा से जुड़े हुए हैं. उन फिल्मों में से ‘व्हाई चीट इंडिया’, ‘रेड’, ‘कागज’ ने बौक्सऔफिस पर पानी तक नहीं मांगा था. उत्तर प्रदेश सरकार की संस्था फिल्म बंधु तो पैसा बांटने में माहिर है. यह संस्था फिल्म निर्माता के साथ ही फिल्म से जुड़े कलाकार को भी अलग से लाखों रुपए का अनुदान देती है. एक इंग्लिश अखबार में 5 फरवरी, 2020 को छपी रिपोर्ट के अनुसार योगी सरकार की फिल्म बंधु ने 2020 में 22 फिल्मों, 16 हिंदी और 6 भोजपुरी के बीच 112 करोड़ 40 लाख रुपए बांटे थे. इन में अनुराग कश्यप व रिलायंस की फिल्म ‘सांड़ की आंख’, ‘बहन होगी तेरी’ जैसी फिल्में समाहित हैं.
इस मामले में ओडिशा सरकार भी पीछे नहीं है. नियम बनाया गया है कि जिन फिल्मों में स्क्रीन टाइम का कम से कम 5 प्रतिशत ओडिशा, इस की संस्कृति, विरासत, पर्यटन स्थलों आदि को बढ़ावा देने वाले दृश्य होंगे, उन्हें 1.25 करोड़ रुपए तथा उन फिल्मों को 2.50 करोड़ रुपए तक दिए जाएंगे जिन का स्क्रीन टाइम कम से कम 10 प्रतिशत ओडिशा, इस की संस्कृति, विरासत, पर्यटन स्थलों आदि को बढ़ावा देने वाला हो पर कुछ फिल्मों को 3 करोड़ रुपए भी अनुदान राशि के तहत दिए गए. ओडिशा सरकार की तरफ से कोई सूची उपलब्ध नहीं हो पाई.
2019 में ओडिशा सरकार ने इंग्लिश, हिंदी या अन्य भाषा की फिल्मों के फिल्म निर्माताओं को 2.5 करोड़ रुपए तक की सब्सिडी प्रदान करने का निर्णय लिया, जो अपनी फिल्मों में ओडिशा और इस की संस्कृति, विरासत व पर्यटन स्थलों को बढ़ावा देंगे. सरकार का दावा है कि फिल्म निर्माताओं को ओडिशा में शूटिंग के लिए प्रोत्साहित करने के लिए यह निर्णय लिया गया.
सब्सिडी का फिल्मों पर असर
फिल्म निर्माता नंदिता दास ने कपिल शर्मा व शहाना गोस्वामी को हीरो ले कर अपनी फिल्म ‘ज्विगाटो’ को 25 दिन में भुवनेश्वर, ओडिशा में फिल्माया था. इसे ओडिशा सरकार ने टैक्सफ्री कर दिया था. इस के अलावा इसे कितनी सब्सिडी मिली, अभी तक पता नहीं चला. सूत्र दावा कर रहे हैं कि नंदिता दास को 3 करोड़ रुपए मिले. मशहूर अभिनेत्री व निर्देशक नंदिता दास ने 2008 में गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म ‘फिराक’ का लेखन व निर्देशन किया था. फिर 10 साल बाद 2018 में उन्होंने दूसरी फिल्म ‘मंटो’ का निर्देशन किया. लेकिन जब वे ओडिशा सरकार से सब्सिडी ले कर बतौर निर्देशक व सहनिर्माता अपनी तीसरी फिल्म ‘ज्विगाटो’ ले कर आईं तो यह फिल्म कहीं से भी नंदिता दास की फिल्म नहीं लगी.
इस फिल्म से नंदिता दास ने भी साबित कर दिया कि जब कलाकार, सरकार या सरकारी धन के लिए काम करता है तो वह अपनी कला के साथ केवल अन्याय ही करता है. नंदिता दास ने इस फिल्म को ओडिशा राज्य की फिल्म पौलिसी को ध्यान में रख कर फिल्माते हुए ओडिशा सरकार से सब्सिडी के रूप में एक मोटी रकम ऐंठी. मगर इस प्रयास में उन्होंने फिल्म की विषयवस्तु का सत्यानाश कर डाला. मगर एक तबका जरूर खुश होगा कि नंदिता दास ने भुवनेश्वर के मंदिरों के दर्शन करा दिए. परिणामतया बेरोजगारी, सामाजिक असमानता और राजनीतिक अंत:दृष्टि को ठीक से चित्रित करने के बजाय उन्होंने एक उपदेशात्मक व अतिनीरस फिल्म बना डाली. कम से कम नंदिता दास से इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती थी.
जब सरकारी सहायता की दरकार हो तो फिल्मकार किस तरह डर कर काम करता है, उस का आईना नंदिता दास की फिल्म ‘ज्विगाटो’ है. नंदिता दास ने कुछ दृश्यों में सूक्ष्मता से धन व वर्ग विभाजन की तसवीर पेश की है पर खुल कर नहीं. लगता है कि वे इसे पेश करते हुए डरती नजर आती हैं.
हरियाणा सरकार ने भी सिनेमा को बढ़ावा देने की दिशा में एक कदम उठाते हुए हरियाणा और इस की संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली 4 फिल्मों- अभिनेता व निर्देशक यशपाल शर्मा की ‘दादा लखमी’, ‘1600 मीटर’, ‘छलांग’ और ‘तेरा क्या होगा लवली’- को हरियाणा फिल्म और मनोरंजन नीति 2022 के तहत ‘सब्सिडी’ दी. इन्हें 50 लाख से ले कर 2 करोड़ रुपए तक दिए गए, यह स्पष्ट नहीं कि किस फिल्म को कितनी राशि दी गई. फिलहाल इस की चेयरपर्सन अभिनेत्री मीता वशिष्ठ हैं. ‘दादा लखमी’ को कुछ इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में पुरस्कृत किया जा चुका है. बाकी 3 फिल्में कहां रिलीज हुईं, पता नहीं.
क्रिएटिविटी पड़ती कमजोर
इतना ही नहीं, सब्सिडी के बल पर भाजपा समर्थक फिल्मकार आकाश आदित्य लामा अब तक नागालैंड के लिए ‘रानी की मोरनी’, ‘तौबा तेरा जलवा’ व 29 मार्च को प्रदर्शित फिल्म ‘बंगाल 1947’ बना चुके हैं. पहली फिल्म ‘रानी तेरी मोरनी’ में चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी यानी कि केंद्र सरकार का पैसा लगा था. इसे तब स्वीकृति मिली थी जब चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के चेयरमैन मुकेश खन्ना थे. यह फिल्म आज तक दर्शकों तक नहीं पहुंची.
29 मार्च को प्रदर्शित फिल्म ‘बंगाल 1947’ एक बेहतरीन प्रेमकहानी वाली फिल्म है. इस में 1947 की पृष्ठभूमि में एक उच्च कुलीन राजा के लंदन में उच्च शिक्षा हासिल कर चुके पोते मोहन और एक डोम जाति की लड़की शबरी की खूबसूरत प्रेमकहानी है. मगर भाजपा की नीति के अनुसार फिल्म में जो कुछ पिरोया गया है उस के चलते फिल्म बरबाद हो गई. इस फिल्म ने बौक्सऔफिस पर पानी नहीं मांगा.
भारत ही नहीं, सब्सिडी का यह गड़बड़?ाला पूरे विश्व में है. विश्व के कई देश अपने देश के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए उन भारतीय फिल्मों को काफी नकद अनुदान के अलावा कई दूसरी सुविधाएं भी दे रहे हैं जिन हिंदी फिल्मों में वहां के पर्यटन स्थल, वहां की सड़कों व अन्य चीजों को चित्रित किया जाता है. विदशों से अनुदान बटोरने में फरहान अख्तर और शाहरुख खान सब से आगे हैं.
फरहान अख्तर ने 2011 में फिल्म ‘डौन 2’ को जरमनी में फिल्मा कर जरमनी सरकार से 25 करोड़ रुपए का अनुदान पाया था. वहीं शाहरुख खान की फिल्म ‘रा वन’ को 30 करोड़ रुपए का अनुदान मिला था. जबकि ‘देसी बौयज’ जैसी ऐक्शनप्रधान फिल्म को यूके सरकार ने 5 करोड़ रुपए दिए थे. इस तरह विदेशों से अनुदान पाने वाली हिंदी फिल्मों की लंबी सूची है. अनुदानप्राप्त ‘रा वन’ और ‘देसी बौयज’ ने बौक्सऔफिस पर पानी तक नहीं मांगा था. इस से किस का कितना नुकसान हुआ, अंदाज लगाया जा सकता है. क्या इस से सिनेमा का विकास हुआ, यह सवाल है.
सब्सिडी की कमजोर कड़ी
यों तो हर राज्य सरकार की तरफ से दी जाने वाली सब्सिडी में भ्रष्टाचार की कहानियां आएदिन सुनाई पड़ती रहती हैं जिन के सुबूत नहीं हैं. हर राज्य में ‘अंधा बांटे रेवडि़यां अपनोंअपनों को दे’ का ही नियम लागू है. कुछ वर्षों पहले एक भोजपुरी कलाकार ने फिल्म बंधु’ पर आरोप लगाते हुए फेसबुक पर कुछ लिखा था, मगर 2 दिनों बाद ही उस कलाकार ने अपना फेसबुक पेज ही डिलीट कर दिया. अब वह कलाकार कहां है, किसी को पता नहीं.
हर सरकार की फिल्म अनुदान नीति की कमजोर कड़ी यह नियम है कि फिल्म को सब्सिडी तभी मिलेगी जब वह फिल्म रिलीज होगी. इस नियम का पालन करने के लिए ज्यादातर फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को किसी भी सिनेमाघर में एक शो रिलीज कर देते हैं और वहां पर अपने दोस्तों, सगेसंबंधियों को बुला कर फिल्म दिखा कर उस का वीडियो बना लेते हैं. इस के अलावा फिल्म कहीं रिलीज नहीं होती. हर सरकार की फिल्म सब्सिडी की कमेटी में ज्यादातर ब्यूरोक्रेट्स ही बैठे हुए हैं जिन्हें सिनेमा की सम?ा नहीं है, फिल्म की कहानी व पटकथा की सम?ा नहीं है.
ये सभी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर फौर्म में कुछ जानकारी मांगते हैं और उसी आधार पर निर्णय लिया जाता है. क्या फिल्म सब्सिडी कमेटी से जुड़े लोग सब्सिडी देने से पहले फिल्म देखते हैं, इस का जवाब नहीं में ही मिलेगा. यदि ऐसा होता तो हिंसा व सैक्स से भरपूर फिल्म ‘रेड’ को सब्सिडी न दी गई होती.
इसी के साथ यह बात साफतौर पर सामने आती है कि जब फिल्मकार सब्सिडी पाने के लिए फिल्म बनाता है तब वह फिल्म की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देता, जिस के चलते फिल्में बौक्सऔफिस पर धड़ल्ले से पिटती जा रही हैं. फिल्म उद्योग से जुड़े लोग मानते हैं कि सरकार द्वारा नकद सब्सिडी देने के बजाय अन्य मदों में छूट देनी चाहिए. शूटिंग लोकेशन के किराए में कटौती की जानी चाहिए और ये सारी रियायतें हर फिल्मकार को मिले, किसी एक फिल्मकार को नहीं.
कौन सा राज्य कितनी सब्सिडी दे रहा
महाराष्ट्र : मराठी भाषा की फिल्मों को 30 व 40 लाख रुपए की सब्सिडी, फिल्म सिटी स्टूडियो में शूटिंग करने पर 50 प्रतिशत छूट, इंटरटेनमैंट टैक्स में पूरी राहत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर डेढ़ लाख रुपए प्रोत्साहन राशि. महाराष्ट् में सरकारी इमारतों या प्रतिष्ठानों में शूटिंग के लिए कोई शुल्क नहीं. इतना ही नहीं, अब महाराष्ट्र सरकार पुरस्कृत फिल्मों को एक करोड़ रुपए तक सब्सिडी देने का प्रस्ताव ले कर आई है.
गोवा : फिल्म की लागत का 50 प्रतिशत, ज्यादा से ज्यादा 20 लाख रुपए.
गुजरात : सिर्फ गुजराती फिल्मों को 5 लाख से 50 लाख रुपए तक की सब्सिडी, फिल्मों को 5 कैटेगरीज में बांटा गया है. बाल फिल्मों को 25 प्रतिशत अलग से, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कार जीतने पर 2 से 5 करोड़ रुपए प्रोत्साहन राशि. रजत कमल जीतने वाली फिल्म को एक करोड़ रुपए प्रोत्साहन राशि, मनोरंजन कर में 100 प्रतिशत की छूट.
आंध्र प्रदेश : तेलुगू भाषा की बाल फिल्मों को लगभग 40 लाख रुपए, अलगअलग मुकाम पर, अन्य तेलुगू फिल्मों को बजट का 15 प्रतिशत.
कर्नाटक : मनोरंजन कर में कन्नड़ फिल्मों को पूरी छूट तथा पुरस्कृत फिल्मों को 5 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि. एक 14-सदस्यीय कमेटी नई फिल्म नीति बनाने पर काम कर रही है.
मध्य प्रदेश : फीचर फिल्म के लिए 2 करोड़ रुपए, वैब सीरीज व टीवी सीरियल एक करोड़ रुपए, डौक्यूमैंट्री 40 लाख रुपए और अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों को 10 करोड़ रुपए.
हरियाणा : हरियाणवी फिल्मों को 2 करोड़ रुपए तक.
ओडिशा : यदि फिल्म की लंबाई का 5 प्रतिशत ओडिशा का कल्चर या पर्यटन नजर आएगा तो सवा करोड़ रुपए, 10 प्रतिशत ओडिशा का कल्चर व पर्यटन नजर आएगा तो ढाई करोड़ रुपए और कुछ फिल्मों को 3 करोड़ रुपए.
हिमाचल प्रदेश : मनोरंजन कर में पूरी छूट, हिमाचल प्रदेश में किसी भी भाषा की फिल्म के फिल्माए जाने पर फिल्म में 26 मिनट हिमाचल फोक को दिया गया तो 10 लाख रुपए.
तमिलनाड़ु : तमिल फिल्मों को मनोरंजन कर में 100 प्रतिशत छूट तथा 7 लाख रुपए का अनुदान.
केरल : मलयालम फिल्मों को 37 हजार से एक लाख 88 हजार रुपए तक की सब्सिडी, राज्य पुरस्कार जीतने वाली फिल्मों को एक से 6 लाख रुपए तक प्रोत्साहन राशि, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने पर 2 लाख रुपए की सब्सिडी.
उत्तर प्रदेश : कई स्तर पर एक करोड़ से 5 करोड़ रुपए तथा फिल्म के बजट का 25 से 75 प्रतिशत तक, ओटीटी फिल्मों को एक करोड़ रुपए या लागत का 50 प्रतिशत. 2023 की नीति के अनुसार अवधी, ब्रज, बुंदेली या भोजपुरी में फिल्में बनाने पर लागत का 50 प्रतिशत सब्सिडी देने का प्रावधान है. इंग्लिश, हिंदी या अन्य भाषाओं में बनी फिल्मों के लिए सब्सिडी फिल्म निर्माण की लागत का 25 प्रतिशत होगी. राज्य में स्टूडियो या लैब सहित अन्य स्थापना के लिए 25 प्रतिशत या अधिकतम 50 लाख रुपए की सब्सिडी दी जाएगी. यदि पूर्वांचल, विंध्याचल और बुंदेलखंड में स्टूडियो खोले जाते हैं तो राशि 35 प्रतिशत या अधिकतम 50 लाख रुपए होगी.
राज्य में आधे से अधिक शूटिंग दिवस वाली फिल्मों के लिए सब्सिडी की राशि अधिकतम 1 करोड़ रुपए होगी.
उत्तर प्रदेश में इंटरनैशनल फिल्म सिटी बनाने के लिए स्वीडन से 10 हजार करोड़ रुपए आएंगे.
उत्तराखंड व दिल्ली : 22 भाषाओं की फिल्मों को 3 करोड़ रुपए तक की सब्सिडी.
?ारखंड : ?ारखंड की स्थानीय भाषा में बनी फिल्म को बजट का 50 प्रतिशत, अन्य भाषाओं की फिल्मों को बजट का 25 प्रतिशत.
बिहार : बिहार में बिहार के आधे तकनीशियन को ले कर 75 प्रतिशत फिल्माई गई भोजपुरी फिल्म को बजट का 25 प्रतिशत, ज्यादा से ज्यादा एक करोड़ रुपए.
बिहार में 50 प्रतिशत तक फिल्माई गई हिंदी फिल्म के बजट का 25 प्रतिशत या 2 करोड़ रुपए में से जो कम होगा. अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिलने पर 10 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि.
पश्चिम बंगाल : बंगाली, संथाली और नेपाली भाषा की फिल्मों को बजट का 10 से 98 प्रतिशत.
राजस्थान : राजस्थान में 75 प्रतिशत फिल्माई गई फिल्म को मनोरंजन कर मुक्त, 5 लाख रुपए की सब्सिडी.
पंजाब : मोहाली के पास सरकार के स्टूडियो में फिल्माई गई फिल्म को 50 हजार रुपए.
विदेशी अनुदान : इंगलैंड, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जरमनी, इटली, न्यूजीलैंड, पोलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, चाइना और कोरिया देश भी अपने यहां शूटिंग करने पर हर भारतीय फिल्म को सब्सिडी दे रहे हैं.
इस के अलावा विश्व के 50 देश ऐसे हैं जहां के फिल्म कौर्पोरेशन या फिल्म कंपनियां भी भारतीय फिल्मों को अपने साथ मिल कर फिल्म बनाने पर आर्थिक मदद करती हैं. मसलन, आबूधाबी फिल्म कमीशन की तरफ से भारतीय फिल्म निर्माता को 30 प्रतिशत की रकम की छूट मिलती है, जितना वे वहां पर शूटिंग करने पर खर्च करते हैं. दक्षिण अफ्रीका में पूरी फिल्म की शूटिंग करने पर डेढ़ मिलियन डौलर तक की सब्सिडी मिलती है. ?
लेखक: भारत भूषण श्रीवास्तव और शांतिस्वरूप त्रिपाठी