किसी तरह की संवेदना प्रगट करने या श्रद्धांजलि देने से पहले उन लगभग दौ सौ श्रद्धालुओं को कोसा जाना बहुत जरूरी है जो ना जाने किस अज्ञात शक्ति या रक्षक कहे जाने वाले भगवान भरोसे रेल की पटरी पर खड़े जलते रावण की मौत का तमाशा देख रहे थे लेकिन खुद काल के गाल में समा गये. अपनी दुखद मौत के जिम्मेदार ये लोग खुद थे, किसी और के सर इस हादसे का ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता और अगर किसी के सर फोड़ा जा सकता है तो वह भगवान है जो खामोशी से अपने भक्तों की दर्दनाक मौत का तमाशा देखता रहा.
अमृतसर में जो हुआ वह कोई नया नहीं था फर्क इतना भर था कि एक और धार्मिक हादसा नए तरीके से हुआ. हजारों की तादाद मे रेल की पटरी पर भगवान भरोसे खड़े लोग जलते रावण की मौत का तमाशा देख रहे थे. भगवान ने इन्हें आगाह नहीं किया कि हट जाओ तुम्हारी खुद की मौत धड़धड़ाती हुई आ रही है. उस पालनहार सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान भगवान ने अपने भक्तों की जान बचाने कोई उपक्रम नहीं किया और न ही कोई लीला दिखाई, तो लगता है उससे ज्यादा क्रूर कोई है ही नही.
पर अमृतसर में बात भगवान की नहीं बल्कि उसके दलालों और दुकानदारों की थी, जो अपना पेट पालने साल भर ऐसे धार्मिक आयोजन करते हैं जिनमे ज्यादा से ज्यादा भीड़ जमा हो और लोग पैसा चढ़ाएं या फिर किसी भी तरह से धर्म पर खर्च करें. यह दुखद हादसा पिछले कई धार्मिक हादसों का दोहराव है जिनमें सैकड़ों हजारों लोग किसी भगदड़ मे मारे गये या फिर सांप्रदायिक हिंसा की बलि चढ़े. इस हादसे ने सिर्फ और सिर्फ धार्मिक समारोहों की पोल खोली है कि कैसे लोग उनमे बेकाबू होकर अपनी जान तक पर खेल जाते हैं.
धर्म और उसके ठेकेदारों ने सिखाया यही है कि अनुशासनहीन बन कर अव्यवस्था फैलाओ तो जल्द दर्शन होंगे, इसीलिए लोग पागलों की तरह मंदिर के पट खुलते ही दर्शनों के लिए टूट पड़ते हैं. बच्चे बूढ़े और औरतों सहित विकलांग तक एक दूसरे को धकियाते पत्थर की मूर्ति के नजदीक पहले पहुंचने की होड़ मे जानवरों को भी मात करते नजर आते हैं. एक अमृतसर ही नहीं बल्कि पूरे देश मे भक्त दशहरे की शाम से रावण दहन का तमाशा देखने घरों से पैदल और वाहनों पर सवार होकर निकल पड़े थे. दशहरे की रात मध्य प्रदेश के जबलपुर मे इस प्रतिनिधि ने जो देखा वो भी दिल दहला देने वाला था. पूरे शहर मे जबरजस्त भीड़ थी, लोग एक दूसरे को धकियाते भागे जा रहे थे, झांकिया और जलता रावण देखने इन लोगों को भी अपनी और दूसरों की जान की परवाह नहीं थी.
हादसा अमृतसर मे हुआ तो इसमे गलती उन्ही लोगों की थी जो हमेशा की तरह हुजूम बनाकर इकट्ठा हुए थे. पर इनसे बड़े दोषी वे पंडे पुजारी होते हैं जो अपने उदर पोषण के लिए ऐसे मेले ठेले लगवाते हैं, लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता कि पर्दे के पीछे दरअसल मे है कौन, ये रिवाज या परम्पराएं शुरू किसने और क्यों कीं और आज इन पर हर कोई अपनी रोटियां सेक रहा है. नेताओं को धार्मिक भीड़ में वोट तो पंडों को नोट दिखते हैं. ऐसे आयोजनों मे कारपोरेट की भूमिका भी अहम हो चली है जो अपने उत्पादों के प्रचार प्रसार और ब्रांडिंग के लिए आयोजको को दिल खोलकर चंदा देता है.
यानि हर कोई धर्म के नाम पर बढ़ती अनुशासनहीनता का जिम्मेदार है, मीडिया भी बढ़ा चढ़ाकर ऐसे आयोजनों को प्राथमिकता देता है, लेकिन यहां दोष इन शिकारियों के साथ शिकारों का ज्यादा है क्योंकि उनमे अच्छे बुरे की तमीज करने की बुद्धि है, यह और बात है कि धर्म की बात आते ही यह बुद्धि बेवकूफी में तब्दील हो जाती है. लोग अंधे बहरे और गूंगे आस्था के नाम पर हो जाते हैं जैसे अमृतसर में हुए इन बेचारों को तो पता ही नहीं चला कि किन पापों की सजा उन्हें भगवान ने दी.
राम की इस लीला को समझने ज्यादा जोर दिमाग पर देने की जरूरत नहीं, सिवाय यह समझने के कि इस देश में ऐसे हादसे ही धर्म की महत्ता बनाये हुए हैं, ये हादसे न हों तो लोग भगवान को मानना ही छोड़ देंगे .इधर सरकार ने भी उम्मीद के मुताबिक भगवानो और धर्म की हकीकत पर मुआवजे का पर्दा तुरंत डाल दिया. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास अफसोस जाहिर करने के पीछे जाने क्यों यह कहने की हिम्मत नहीं थी कि यह तो हरि इच्छा थी. अब इसमे न तो कहीं आतंकवादी थे, न नक्सली थे और न ही वामपंथी बुद्धिजीवी थे जो देशद्रोही होते हैं. अब सीधे सीधे राम को तो दोषी कोई ठहरा नहीं सकता, इसलिए हादसे के सच पर सब चुप रहे.
धार्मिक हादसों में सरकारी मुआवजे का खेल इसीलिए खेला जाता है कि लोग कहीं भगवान की असलियत के बारे में ज्यादा न सोचने लगें. अमृतसर हादसे में मृतकों के परिजनों को मुआवजा देना एक बेतुकी बात थी, उल्टे होना तो यह होना चाहिये था कि सरकार मृतकों के परिजनो से जुर्माना वसूलती, क्योंकि वे गलत तरीके से रेल की पटरी पर खड़े थे और अगर यह गलती नहीं है तो हर सड़क हादसे पर भी सरकार को मृतक को मुआवजा देना चाहिये और यातायात अवरुद्ध करने वालों को कोई सजा नहीं देनी चाहिये, पर सरकार ऐसा नहीं करती, बल्कि धर्म के नाम पर अपनी गलती से मरे लोगों को मुआवजा देकर ऐसे हादसों को प्रोत्साहित ही करती है जिससे लोग धर्म को न कोसें और कड़वा सच यह कि ऐसा होता भी है.
होना तो यह चाहिये कि धार्मिक आयोजन प्रतिबंधित किए जाए, इनमे अरबों रुपए फूंकते हैं, हजारों लोग हर साल मारे जाते हैं, करोड़ों लोगों का कीमती वक्त जाया होता है, सिर्फ इसलिए कि इन धार्मिक ड्रामों से पंडे पुजारियों की रोजी रोटी चलती है. दूसरे ये आयोजन लोगों को अनुशासनहीन बनाने के अलावा अंधविश्वासी और पाखंडी भी बनाते हैं, लगता नहीं कि धर्म के अंधे लोग और सरकार इस पर कभी सोच पाएंगे.
अमृतसर हादसे में मारे गये लोगों से मानवीय संवेदनाओं और सहानुभूति से ज्यादा जरूरत यह सबक लेने की है कि लोग अपनी लापरवाही और अंधभक्ति के चलते मारे गये. इस दुनिया मे बकौल स्टीफन हाकिंग कोई भगवान है ही नहीं जो किसी की किस्मत लिखता हो.