लेखिका- स्नेहा सिंह
सिर्फ यही नहीं कि पुरुषों के साथ महिलाएं कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही हैं बल्कि वे पुरुषों से ज्यादा मेहनत करने वाली भी साबित हुई हैं, लेकिन फिर भी उच्च पदों पर उन की संख्या कम है. ऐसा क्यों ? हर क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ रही है. पर, टीचिंग और लीगल को छोड़ कर टौप पर महिलाएं कम ही हैं. आज कौर्पोरेट का दौर है. फौर्च्यून की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की एक हजार टौप कंपनियों के सीईओ में 94 प्रतिशत पुरुष हैं. मतलब, पढ़ाई और कैरियर बनाने की तीव्र इच्छा होने के बावजूद महिलाएं टौप यानी सीईओ पद पर मात्र 6 प्रतिशत ही हैं.
आज कौर्पोरेट वर्ल्ड में जो महिलाएं हैं, उन्होंने पुरुषों की तरह ही एसटीईएम की डिग्री के साथ मैनेजमैंट की भी डिग्री ले रखी है. उन्होंने पुरुषों की ही तरह चुनौतियों का सामना किया है. इन में से एकतिहाई महिलाओं को अन्य महिला लीडरों से प्रेरणा मिली है. परंतु आश्चर्य की बात यह है कि उन में पुरुषों के बराबर योग्यता होने के बावजूद उन्हें टौप पर पहुंचने में 30 प्रतिशत अधिक समय लगता है. इस से उन की उम्र अधिक हो जाती है. हालांकि, पुरुषों की अपेक्षा महिलाए काफी हार्डवर्कर हैं, इस के बावजूद टौप पर इन की हिस्सेदारी कम क्यों है, यह सोचने की बात है?
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दरअसल, टैलेंटेड और कैरियर ओरिएंटेड ज्यादातर महिलाएं अपनी एक लक्ष्मणरेखा पहले से ही खींच रखती हैं. एक निश्चित पद पर पहुंचने के बाद टौप पर पहुंच कर भारी जिम्मेदारी उठाने के लिए वे तैयार नहीं होतीं. इस के पीछे वजह यह है कि पद के साथ आने वाली चुनौतियां, तनाव व समय की अनिश्चितता जैसे मौकों से जूझने के बजाय वे एक सुरक्षित और आरामदायक कैरियर पर पूर्णविराम लगाना पसंद करती हैं.
ऐसी तमाम महिलाएं हैं जिन में पावर और महत्त्वाकांक्षा तो होती है, पर धीरज नहीं होता, जिस से वे पीछे हट जाती हैं. सीईओ इंद्रा नूई का कहना है कि सीईओ बनना कोई थोड़े दिनों की प्रक्रिया नहीं है. यह पद लंबा धैर्य, मेहनत और क्षमता मांगता है. एजुकेशन और हिसाबकिताब के अलावा कम्युनिकेशन, टैक्नोलौजी, न्यू आइडिया और नौलेज जैसी अनेक चीजें लीडरशिप के लिए जरूरी हैं.
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इकोनौमिक टाइम्स के सर्वे के अनुसार, आज जो बैस्ट सीईओ हैं, वे बैस्ट स्कूल और यूनिवर्सिटी के पढ़े हैं. परिवार में आज भी पुरुषों को इस बारे में अधिक प्रोत्साहित किया जाता है. कंपनियां स्कूल और कालेज को महत्त्व देती हैं, इसलिए कमजोर कालेज व यूनिवर्सिटीज की पढ़ी महिलाएं इस रेस में पीछे रह जाती हैं. अब तक जो फीमेल सीईओ रही हैं, उन में से 50 प्रतिशत महिलाओं ने कंपनी की कमाई कम कराई है. जबकि, कंपनी के लिए तो प्रौफिट महत्त्वपूर्ण है. ऐसे में कंपनियां फीमेल सीईओ क्यों पसंद करेंगी.
लाखोंअरबों रुपए की पूंजी वाली अनेक लोगों के जीवन को संवारती कंपनियों को लीडर आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास वाला चाहिए. छोटेछोटे काम महिलाएं स्वयं कर लेती हैं, पर बड़े काम और निर्णय लेने में वे डिपैंडेबल बन जाती हैं. कुछ ऐसे निर्णय हैं जो वे खुद नहीं ले पातीं. शायद वे ऐसे निर्णय लेने से डरती हैं. खतरा उठाने के बदले सुरक्षा इन महिलाओं का मूलभूत गुण है. जबकि कंपनी के लिए खतरा उठाना जरूरी है.
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लीडरशिप में महिलाएं पीछे
न्यूरो साइंस का मानना है कि इस बारे में पुरुष और महिलाओं के सोचने में अंतर है, जैसे कि पुरुष महिलाओं की अपेक्षा समस्या को जल्दी पहचान कर हल कर लेते हैं.
महिलाएं इमोशनली जबकि पुरुष लौजिकली सोचते हैं. परिणामस्वरूप, उन का मैथ्स अच्छा होता है. महिलाएं दुखी जल्दी होती हैं, जबकि पुरुष उसी बात को हलके में ले सकते हैं. महिलाएं भूगोल, नक्शा, दिशा आदि याद रखने और साहस करने में भी पुरुषों की अपेक्षा पीछे हैं. इन बायलौजिकल कारणों से भी महिलाएं लीडर के रूप में पीछे रह जाती हैं.
अमेरिकी अखबार ‘द वाल स्ट्रीट जर्नल’ के एक सर्वे से पता चला है कि महिलाएं सीईओ इसलिए कम हैं क्योंकि पुरुषों में उत्साह, महत्त्वाकांक्षा और प्रभुत्व के गुण अधिक होते हैं. पुरुष कुदरती लीडर हैं, इसलिए वे आगे रहते हैं. दूसरे, वास्तविक कारण यह है कि ग्रुप फेवरिज्म, बोर्डरूम में 70 प्रतिशत पुरुष होते हैं, जो महिला सीईओ का समर्थन करने से कतराते हैं. 786 मेल सीईओ के सर्वे में 33 प्रतिशत पुरुषों ने महिला सीईओ का विरोध किया था.
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आज हम सभी को ऐसा लगता है कि महिलाएं सैल्फ प्रमोशन में आगे हैं, पर बिजनैस में पुरुष अपनी क्वालिटीज अधिक असरकारी रूप से प्रस्तुत कर सकता है, जो महिलाएं नहीं कर सकतीं. वहीं, एकदो बार निष्फल होने पर महिलाएं हार मान कर पीछे हट जाती हैं. पुरुषों के लिए हार को जीत में बदलना स्वाभिमान और अस्तित्व का सवाल बन जाता है. जिस तरह हारा जुआरी दोबारा खेलता है, उसी तरह पुरुष निष्फलता के बाद दोहरी ताकत से सफलता के लिए प्रयास करता है.
हर महिला में यह मानसिक और वैचारिक भिन्नता नहीं है. पढ़ाई, मेहनत और लीडरशिप जैसे गुण पुरुषों की ही तरह होने के बावजूद आखिर वे टौप पर नहीं पहुंच पातीं. इस का एक सब से महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि आज भी जैंडर बायस और सोशल फैक्टर है. शादी, घर और बच्चों के लिए महिलाओं की भूमिका आज भी महत्त्वपूर्ण है. ऐसे तमाम पुरुष हैं जिन के लिए महिलाएं आज भी शिकार हैं. महिलाएं पुरुषों के साथ उन की तरह खेल खेल नहीं सकतीं. कौर्पोरेट पौलिटिक्स खेलना जिस की आदत नहीं, वह महिला हो या पुरुष, टौप पर पहुंचने में सफल नहीं हो सकता. कंपनी के काम से सीईओ के रूप में विदेश भी जाना पड़ सकता है, जिसे अनेक महत्त्वाकांक्षी महिलाएं टाल देती हैं.
जेपी मौर्गन की पूर्व सीईओ डिना डबलन के अनुसार, महिला टौप पर पहुंचने के बाद माइनौरिटी में आ जाती है और उस के लिए मैजौरिटी को डील करना मुश्किल होता है. हार्वर्ड की रिसर्च के अनुसार, अगर महिलाएं सीईओ होती हैं तो उन के साथ काम करने वाले पुरुषों का आत्मविश्वास कम होता है. इसलिए वे महिलाओं को पछाड़ते हैं. ऐसे तमाम कारणों की वजह से महिला सीईओ कम हैं.
अगर महिलाओं को सीईओ जैसे उच्च पद पर विराजना है तो खुद को निखारना, तराशना और व्यवस्थित करना होगा. जैसा कि फेसबुक की सीईओ (इंडिया) क्रिथिका रेड्डी कहती हैं कि जिन्हें टौप पर पहुंचना है, उन्हें खतरा उठाने से डरना नहीं चाहिए, खतरा ही अवसर प्रदान करता है और हर स्थिति के लिए तैयार रहना ही लीडरशिप का पहला गुण है. महिलाओं को भूल करने, सीखने और महत्त्वाकांक्षा के साथ सच्ची दिशा में मेहनत करने की सलाह ऐक्सिस बैंक की सीईओ भी देती हैं.
जरा गौर करें
अगर महिलाओं को सीईओ के रूप में छलांग मारनी है तो जिस क्षेत्र में टौप पर पहुंचना है, उस क्षेत्र की वे बैस्ट एजुकेशन लें. हर मामले में तैयार रहें, कभी भी कोई सवाल आए, उस का हल आप के पास तैयार होना चाहिए.
अपने कैरियर की आप मालिक हैं, यह सोच कर आगे बढ़ें.अगर आप को आगे जाना है, तो अन्य से अलग बनिए.प्रौपर प्रश्न खुद से भी और अन्य से भी पूछती रहें.
आत्मविश्वास और आत्मश्रद्धा का कोई विकल्प नहीं है. भली बनें.वहीं, कंपनियां भी वर्क्स विद फैमिलीज, अफोर्डेबल चाइल्ड केयर, केचीस, पेड पेरैंटल लीव और फ्लैक्सी टाइम आदि की सुविधा दें तो महिलाएं पारिवारिक समस्याओं का सामना करती हुईं टैंशनफ्री हो कर आगे बढ़ने के बारे में सोच सकती हैं.